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Tuesday 27 September 2011

'शहीद-ए-आज़म' भगत सिंह के 104 वें जन्मदिवस की शुभकामनाएं...

क्रांति के महानायक और 'इन्कलाब जिंदाबाद' के प्रणेता 'शहीद-ए-आज़म' भगत सिंह के 104 वें जन्मदिवस पर उनके चरणों में शत शत नमन...
इन्कलाब जिन्दाबाद जैसे नारे देने वाले महान क्रान्तिकारी 'शहीद-ए-आज़म' भगत सिंह  का जन्म सरदार किशन सिंह संधू और सरदारनी विद्यावती कौर के घर 28 सितम्बर 1907 को वर्तमान पाकिस्तान के पंजाब में लायलपुर जिले के एक गांव में हुआ था.. लायलपुर अब फैसलाबाद के नाम से प्रसिद्ध है.. उनका पैतृक गांव खटकर कलां पंजाब के नवांशहर जिले में बंगा कस्बे के पास है जिसे हाल ही में 'शहीद भगत सिंह नगर' का नाम दिया गया है..
उन्हें अपनी दादी से "भागां वाला" उपनाम मिला था, जिसका अर्थ "भाग्यशाली" होता है..
भगत सिंह को देशभक्ति विरासत में मिली थी, उनके दादा, अर्जुन सिंह ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया था और महाराजा रणजीत सिंह की सेना में सेवा की थी, वो स्वामी दयानंद सरस्वती के हिन्दू सुधारवादी आंदोलन, आर्य समाज के अनुयायी थे... उनके चाचा अजित सिंह, स्वर्ण सिंह और उनके पिता ग़दर पार्टी के सदस्यों करतार सिंह सराभा, ग्रेवाल और हरदयाल के नेतृत्व में थे. अजित सिंह अपने खिलाफ लंबित मामलों की वजह से फारस भागने के लिए मजबूर हुए थे जबकि स्वर्ण सिंह का अपने घर में लाहौर की बोर्स्तले जेल से रिहा  होने के बाद 1910 में देहांत हो गया था... इन सबका प्रभाव भगत सिंह के व्यक्तित्व पर पड़ा था...
12 साल के भगत पर जलियाँवाला बाग हत्याकाण्ड का इतना गहरा असर पड़ा कि वो वहाँ की मिट्टी ले आए थे और सदैव अपने साथ स्मृति चिन्ह के रुप मे रखते थे...
भगत सिंह अन्य सिख छात्रों की तरह लाहौर के खालसा हाई स्कूल में नहीं थे, क्योंकि उनके दादा जी को ब्रिटिश अधिकारियों के लिए स्कूल के संचालकों की स्वामिभक्ति मंजूर नहीं थी.. इसके बजाय, उनके पिता ने दयानंद एंग्लो वैदिक हाई स्कूल में भगत सिंह का दाखिला कराया
आर्य समाजी स्कूल में 13 साल की उम्र में, भगत सिंह ने महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन का पालन शुरू कर दिया.
इस आन्दोलन में भगत सिंह ने खुले तौर पर ब्रिटिश सरकार को ललकारा था... लेकिन चौरा-चौरी की हिंसक घटना के बाद गांधी के आन्दोलन वापस लेने से भगत सिंह नाखुश थे...उसके बाद वह युवा क्रांतिकारी आंदोलन में शामिल हो गए और अंग्रेजों के खिलाफ एक हिंसक आंदोलन की वकालत शुरू की..
1923 में भगत ने मशहूर पंजाब हिंदी साहित्य सम्मेलन द्वारा आयोजित एक निबंध प्रतियोगिता जीत ली, जिससे पंजाब हिंदी साहित्य सम्मेलन के सदस्यों सहित महासचिव प्रोफेसर भीम सेन विद्यालंकार का ध्यान आकर्षित किया..
इस उम्र में उन्होंने प्रसिद्ध पंजाबी साहित्य को उद्धृत किया और पंजाब की समस्याओं पर विचार - विमर्श किया.. उन्होंने कविता और साहित्य जो पंजाबी लेखकों द्वारा लिखा गया था पढ़ा और उनके पसंदीदा कवि सियालकोट से अल्लामा इकबाल थे...
अपनी किशोरावस्था के वर्षों में, भगत सिंह ने लाहौर में नेशनल कॉलेज में अध्ययन शुरू कर दिया है लेकिन जल्दी शादी से बचने के लिए घर से दूर कानपुर भाग आये और गणेश शंकर विद्यार्थी के द्वारा संगठन 'नौजवान भारत सभा' के सदस्य बन गये.. नौजवान भारत सभा में भगत सिंह और उनके साथी क्रांतिकारियों की युवाओं के बीच लोकप्रियता में वृद्धि हुई... इतिहास के प्रोफेसर विद्यालंकार द्वारा परिचय के माध्यम से हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन में शामिल हो गए जो राम प्रसाद बिस्मिल, चंद्रशेखर आजाद और अशफाकुल्ला खान जैसे प्रमुख नेताओं का संगठन था.. यह माना जाता है कि वह कानपुर चले गए थे काकोरी ट्रेन डकैती के कैदियों को आज़ाद कराने के किये लेकिन अज्ञात कारणों से लाहौर वापस आये... 1926 अक्टूबर में दशहरा के दिन लाहौर में एक बम विस्फोट हुआ था, और भगत सिंह को उनकी कथित संलिप्तता के लिए 29 मई 1927 में गिरफ्तार किया गया और 60, 000 रूपये  की जमानत पर उन्हें गिरफ्तारी के पांच सप्ताह के बाद छोड़ा गया था
उन्होंने अमृतसर से प्रकाशित उर्दू और पंजाबी समाचार पत्रों में लिखा और संपादित किया..
सितम्बर 1928 में कीर्ति किसान पार्टी के बैनर तले भारत भर से विभिन्न क्रांतिकारियों की बैठक दिल्ली में हुई जिसके सचिव भगत सिंह थे. उसके बाद की क्रांतिकारी गतिविधियों से भगत सिंह इस संगठन के नेता के रूप में उभरे...
उन्होंने आज़ाद के साथ 'हिंदुस्तान समाजवादी प्रजातांत्रिक संघ' की स्थापना की जिसका उद्देश्य सशस्त्र क्रांति के द्वारा देश में गणतंत्र की स्थापना करना था.. फरवरी 1928 में साइमन कमीशन का अहिंसक विरोध करने वाले लाला लाजपत राय की लाठीचार्ज में मौत का बदला लेने के लिए भगत सिंह ने इसके लिए ज़िम्मेदार ब्रिटिश अधिकारी उपमहानिरीक्षक स्कॉट की हत्या के लिए योजना बनाई लेकिन गलती से सहायक अधीक्षक सांडर्स मारा गया.. जिससे भगत सिंह को लाहौर से मौत की सजा से बचके भागना पड़ा...
ब्रिटिश सरकार की दमनकारी नीतियों के खिलाफ और भारतीय रक्षा अधिनियम के तहत पुलिस को दी गई शक्तियों के विरुद्ध सरकार का ध्यान आकर्षित करने के लिए 8 अप्रैल, 1929 को भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने सेंट्रल असेंबली हॉल में बम फेंक दिया और बम के धमाके का मकसद बहरी सरकार को जगाना था.. दोनों ने वहीँ पर अपनी गिरफ्तारी दी.. वो चाहते तो भाग सकते थे..
भगत सिंह अपने साथी राजनीतिक कैदियों की जेल अधिकारियों द्वारा अमानवीय व्यवहार के विरोध में भूख हड़ताल पर चले गये...

7 अक्टूबर, 1930 को भगत सिंह, सुख देव और राज गुरू को एक विशेष अदालत द्वारा मौत की सजा दी गई.. भारी लोक दबाव और भारत के कुछ राजनीतिक नेताओं द्वारा कई अपीलों के बावजूद, भगत सिंह और उनके साथियों को 23 मार्च, 1931 के शुरुआती घंटों में फांसी पर लटका दिया गया...

वीर भगत सिंह के कुछ पसंदीदा शेर बता रहा हूँ आपको--
जिंदगी  तो  अपने  दम  पर  ही  जी  जाती  है...
दूसरों के कंधों पर तो सिर्फ जनाजे उठाए जाते हैं...
 
जबसे सुना है मरने का नाम ज़िन्दगी है...
सर पे कफ़न लपेटे कातिल को ढूंढते हैं...
 
भगत सिह ने लिखा था कि एक दिन ऐसा आएगा जब उनके विचारो को हमारे देश के नौजवान मार्गदर्शक के रूप मे लेंगे... भगत सिह के शब्दो मे क्रांति का अर्थ है, क्रांति जनता द्वारा जनता के हित मे और दूसरे शब्दो मे 98 प्रतिशत जनता के लिए स्वराज जनता द्वारा जनता के लिए है . भगत सिह जी का यह कहना था कि अपने उद्देश्य पूर्ति के लिए रूसी नवयुवको क़ी तरह हमारे देश के नौजवानो को अपना बहुमूल्य जीवन गाँवो मे बिताना पड़ेगा और लोगो को यह समझाना पड़ेगा कि क्रांति क्या होती है और उन्हें यह समझना पड़ेगा कि क्रांति का मतलब मालिको क़ी तब्दीली नही होगी और उसका अर्थ होगा एक नई व्यवस्था का जन्म एक नई राजसत्ता का जन्म होगा.  यह एक दिन एक साल का काम नही है.  कई दशको का बलिदान ही जनता को इस महान कार्य के लिए तत्पर कर सकता है और इस कार्य को केवल क्रांतिकारी युवक ही पूरा कर सकते है..
क्रांतिकारी का मतलब बम और पिस्तौल से नही है वरन अपने देश को पराधीनता और गुलामी की जंजीरों से
मुक्त और आज़ाद कराना है... भगत सिह क्रांतिकारी क़ी तरह अपने देश को आज़ाद कराने क़ी भावना दिल मे लिए स्वतंत्रता आंदोलन मे शामिल हुए थे... भगत सिह को इन्क़लाबी शिक्षा घर के दहलीज पर प्राप्त हुई थी. भगत सिह के परिवारिक संस्कार पूरी तरह से अंग्रेज़ो के खिलाफ़ थे.. हर हिंदुस्तानी मे यह भावना थी कि किसी तरह अंगरज़ो को हिंदुस्तान से बाहर खदेड़ दिया जाए... जब भगत सिह को फाँसी क़ी सज़ा सुनाई गई थी उन्होंने अपने देश क़ी आज़ादी के लिए हँसते हँसते फाँसी पर झूल जाना पसंद किया और उन्होने अपने देश के लिए अपने प्राणों क़ी क़ुर्बानी दे दी . सरदार भगत सिह ने छोटी उम्र मे अपने प्राणों क़ी क़ुरबानी देकर देश के नवयुवको के सामने मिसाल क़ायम क़ी है, जिससे देश के नवयुवको को प्रेरणा ग्रहण करनी चाहिए..

भारत के महान क्रांतिकारी, महान वीर शहीद भगत सिंह को शत-शत नमन...

वन्दे मातरम्...
जय हिंद... जय भारत...

Wednesday 14 September 2011

हिंदी, हिन्दू और हिंद विरोधी प्रधानमंत्री-

हिंदी, हिन्दू और हिंद विरोधी प्रधानमंत्री-
भारत का कैसा दुर्भाग्य है कि उसे हिंदी, हिन्दू और हिंद विरोधी प्रधानमंत्री ही अधिक मिले 
सर्वप्रथम मेकोले की अँग्रेजी-मिशनरी नीतियो का पालन करने को कटिबद्ध जवाहरलाल नेहरू 18 वर्षों तक भारत के प्रधानमंत्री बने रहे उन्हें तो भारत शब्द से ही घृणा थी संविधान में भारत के लिए इंडिया शब्द पर वे बहुत अड़े रहे
भारत की भाषा, भारत का धर्म और भारतीय वेषभूषा से भी उन्हें एलर्जी हुआ करती थी और धोती को वे असभ्यों का वेश मानते थे कुल मिलाकर वह हर चीज बुरी और असभ्य मानते थे जो अंग्रेज़ नहीं करते

समस्त भारत में स्वतन्त्रता के समय हिन्दी को ही राष्ट्र भाषा बनाए जाने की मांग थी, किन्तु जवाहरलाल नेहरू ने ऐसे हथकंडे अपनाए कि हिन्दी राष्ट्र भाषा बन ही न सके हिन्दी विरोधी लॉबी को बढ़ावा देते रहे, उनके शिक्षा मंत्री मौ॰ आजाद हिन्दी-विरोधी आंदोलनो के लिए पैसे बांटते रहे तमिलनाडू के रामास्वमी नाइक़र को हिन्दी के विरोध के लिए समय समय पर भारी धन राशि से सहायता करते रहे हिन्दी विकसित नहीं हैयह तर्क दिया गया (भाषाओं की जननी संस्कृत की बेटी जिसे कहा जाता हैं वह विकसित नहीं है, ऐसा मानना था जवाहर लाल नेहरु का ) ‘हिन्दी के स्थान पर हिंदुस्तानी होनी चाहिएइसे आंदोलन बनाया गया और सरकारी धन लुटाया क्षेत्रीय भाषाओं की मांग को बलवती बनाया गया ऐसे कुछ प्रदेशों को अहिंदी भाषी प्रदेशों की संज्ञा दी गई आजकल हिन्दी मराठी जैसे झगड़े सब नेहरू की ही देन है
हिन्दी की उपभाषाओं जैसे राजस्थानी, हिमाचली, डोगरी, मैथिली, भोजपुरी, अवधी आदि की मांगे उठवा कर हिन्दी के पक्ष को दुर्बल करना चाहा ऐसे बे सिर पैर के तर्क दिये गए कि राष्ट्रभाषा से भारत विभाजित हो जाएगा ( जबकि संसार में किसी भी देश कि राष्ट्रीय एकता के लिए राजभाषा को आवश्यक माना जाता है) देश के नेता बाबू राजेंद्र प्रसाद, श्री टंडन और हजारो महापुरुष सिर पटकते रहे पर जवाहर लाल ने किसी की भी नहीं चलने दी और आज यह दशा हैं कि जिस इंगलेंड ने हमारी भारत माता को गुलामी की जंजीरों में जकडा, देशभक्तो को फांसी पर लटकाया, हमारी भाषा को दबाया, उन हजारों मील दूर से आए अंग्रेज़ो की अवैज्ञानिक भाषा को ही वास्तविक रूप में भारत में राष्ट्रभाषा के सिंहासन पर विराजमान कर दिया हैं नेहरू का पाक प्रेम तो इतना अधिक था कि वे इस बात से उदासीन रहते थे कि कौन सा क्षेत्र पाकिस्तान में जा रहा हैं और कौन सा भारत में रहेगा उनका सोचना था कि क्या फर्क पड़ता है यदि कुछ हजार इधर उधर रह गया
चीन से लड़ाई हारने पर इस प्रधानमंत्री से संसद मे पूछा गया कि क्यों हारे.??
कैसे बटवारा किया जमीन का.??
तो जवाब क्या आयावह जमीन जो चीन ने ली है उस पर तो घास का तिनका भी नहीं उगता
इस कथन पर तपाक से एक सांसद प्रकाशवीर शास्त्री ने कहा किपीएम साहब! आपके गंजे सिर पर भी एक बाल नहीं उगता तो क्या इसे काट दिया जाना चाहिए.?”
इसी कारण कितने ही हिन्दू बहुल जिले अनुचित रूप से पाकिस्तान को दे दिये गए जैसे सिंध के थरपारकर के क्षेत्र, बंगाल का खुलना जिला, ‘हिन्दू बहुललाहौर, यहाँ तक कि 98 प्रतिशत हिन्दू बौद्ध जनसंख्या वाला पर्वतीय जिला चट्ट्गांव भी बांग्लादेश मे चला गया (जिसे हम क्रिकेट के मैदान के रूप मे याद करते है आजकल)

सुचना के अधिकार से नेहरु के बारे में आज एक बहुत ही गन्दी और भयावह सच्चाई पता चली है-
असल में नेहरु हिन्दुओ से बहुत घृणा करते थे
जब सरदार पटेल जी के प्रयासों से सोमनाथ मंदिर 1951में बनकर तैयार हुआ तो सरदार पटेल जी ने राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद जी से मंदिर का उद्घाटन करने का अनुरोध किया जिसे राजेन्द्र बाबू ने सहर्ष स्वीकार कर लिया. साथ ही सरदार पटेल जी ने नेहरू जी से भी पत्र लिखकर इस समारोह में भाग लेने की अपील की.

लेकिन नेहरु जिसे कांग्रेसी भारत का "शिल्पी " आदि ना जाने किन किन झूठे अलंकारों से नवाजते है, ने अपनी गन्दी और तुच्छ मानसिकता का परिचय देते हुए सिर्फ वोट बैंक की खातिर सरदार पटेल को एक पत्र लिखकर कहा कि वो किसी भी ऐसे समारोह में नहीं जाते जिससे देश का साम्प्रदायिक सद्भाव बिगड़े और नेहरु ने राजेन्द्र बाबू से भी पत्र लिखकर सोमनाथ के उद्घाटन समारोह में ना जाने की अपील की, जिसे राजेन्द्र बाबू ने अस्वीकार कर दिया.
लेकिन चूँकि भारत में प्रधानमंत्री सत्ता का केन्द्र है इसलिए राजेंद्र बाबू ने नेहरु का मान रखते हुए सरकारी खर्च के बजाय निजी पैसे से समारोह में शिरकत की. उन्होंने फ्रोंतियर मेल ट्रेन से बरोड़ा फिर बरोड़ा से सोमनाथ पहुचे,
जबकि देश के राष्ट्रपति को विशेष ट्रेन और जहाज़ की सुविधा है.

हालांकि नेहरु ने लखनऊ के नदवा इस्लामिक कालेज, अजमेर दरगाह और देवबंद के दारुल उलूम के कई समारोहों में एक प्रधानमंत्री के तौर पर शिरकत की थी...
क्या तब नेहरु को इस देश की साम्प्रदायिक सद्भाव का ख्याल नहीं था.?

इसी वोट बैंक की तुष्टिकरण नीति को वर्तमान में सोनिया गांधी बखूबी आगे बढा रही है...

कूटनीतिक द्रष्टिकोण से 1971 में हारे हुए पाकिस्तान के बंदी सैनिकों को 'बिना कश्मीर' रिहा करना इंदिरा गांधी की 'मूर्खता' ही समझी जाती है...

इतिहास साक्षी है कि हमारे शत्रु-प्रेमी प्रधानमंत्री भारत को बहुत महंगे पड़े है...
कश्मीर समस्या जो भारत के कलेजे का नासूर बनी है वह पाक प्रेम का ही दुष्परिणाम है,
नहीं तो क्यों महाराजा हरिसिह के कश्मीर को भारत में मिलाने के प्रस्ताव को लंगड़ा बना डाला गया?
क्यों कश्मीर के भारत में विलय के मार्ग में रुकावटें डाली गई?
क्यों कश्मीर की पुण्यभूमि को इस प्रकार मलेच्छों द्वारा पदाक्रांत करने दिया गया?
क्यों कश्मीर में तब लाखों हिंदुओं को पाकिस्तानियों के हाथों मारे जाने के लिए असहाय छोड़ दिया गया.?
क्यों भारत की विजयी सेना को पाक विजित क्षेत्रों को पुनः जीत कर भारत में मिला लेने से रोक लिया गया.??
और क्यों आक्रमणरत पाकिस्तान को 55 करोड़ रूपए(आज के वक़्त के बीस हज़ार करोड़ रूपये, इसके लिए गांधी द्वारा अनशन किया गया) मंत्रिमंडल का विरोध होते हुए भी दे दिये गए?
देश के शीर्ष नेताओं का पाक प्रेमी होना हमेशा भारत के लिए खतरा रहा है.??

केवल एक और घटना का उल्लेख करते हैं जो अभी तक जनता के सामने नहीं आई, मोरारजी देसाई उच्चकोटि के गांधीवादी थे जब वे प्रधानमंत्री बने तो उन्हें भारत की गुप्तचर एजेंसी राकी फाइलों से पता चला कि पाकिस्तान में परमाणु बम बनाने की जो तैयारियां चल रही हैं उसे विफल करने के लिए, और इस हेतु क्वेटा में बन रहे कारखाने को ध्वस्त करने के लिए पूर्व प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी की स्वीकृति से भारत के गुप्तचर पाकिस्तान में सक्रिय हैं उन्होने इस कार्य में कुछ पाक नागरिकों का सहयोग भी प्राप्त कर लिया, रा के पूर्व निदेशक श्री मलिक ने अपने लेख मे बताया कि मात्र दस हजार डॉलर में इस योजना का पूरा मानचित्र कोई वैज्ञानिक बेचने के लिए तैयार था किन्तु गांधीवादी प्रधानमंत्री को रा के इस कृत्य पर क्रोध गया, दस हजार डालर तो क्या देने थे, उन्होने गांधी से भी बढ़कर कार्य किया और मोरारजी ने रा की पूरी योजना से ही पाकिस्तान को अवगत करा दिया...
और कुछ समय पश्चात् पाकिस्तान का सबसे बड़ा पुरस्कार 'निशान-ए-पाकिस्तान' प्राप्त किया...
वन्दे-मातरम्...
जय हिंद...जय भारत....

 

Monday 12 September 2011

देश के 'सबसे बड़े' अनशन सत्याग्रही- शहीद जतिन दास...

जतिंद्र नाथ दास (27 अक्टूबर 1904 - 13 सितम्बर 1929), उन्हें जतिन दास के नाम से भी जाना जाता है, एक महान भारतीय स्वतंत्रता सेनानी और क्रांतिकारी थे...
लाहौर जेल में भूख हड़ताल के 63 दिनों के बाद जतिन दास की मौत के सदमे ने पूरे भारत को हिला दिया..
स्वतंत्रता से पहले अनशन(उपवास) से शहीद होने वाले एकमात्र व्यक्ति
जतिन दास हैं...
जबकि
पोट्टी श्रीरामुलु एक अलग आंध्र के लिए आजादी के बाद उपवास से दिवंगत हुए थे...
वर्तमान में इसी फेहरिस्त में एक नाम और जुड़ गया है- स्वामी अगमानंद का, जो गंगा नदी में खनन माफिया के विरोध में अनशन पर बैठे थे...

लेकिन जतिन दास के देश प्रेम और अनशन की पीड़ा का कोई सानी नहीं है...

जतिंद्र नाथ दास का जन्म कोलकाता में हुआ था, 
वह बंगाल में एक क्रांतिकारी संगठन अनुशीलन समिति में शामिल हो गए.
जतिंद्र ने 1921 में गांधी के असहयोग आंदोलन में भाग लिया.
नवम्बर 1925 में कोलकाता में विद्यासागर कॉलेज में बी.ए. का अध्ययन कर रहे जतिन दास को राजनीतिक गतिविधियों के लिए गिरफ्तार किया गया था और मिमेनसिंह सेंट्रल जेल में कैद किया गया था. वो राजनीतिक कैदियों से दुर्व्यवहार के खिलाफ भूख हड़ताल पर चले गए, 20 दिनों के बाद जब जेल अधीक्षक ने माफी मांगी तो जतिन ने अनशन त्याग किया...
उनसे भारत के अन्य भागों में क्रांतिकारियों द्वारा संपर्क किया गया तो वह भगत सिंह और कामरेड के लिए बम बनाने में भाग लेने पर सहमत हुए.
14 जून 1929 को उन्हें क्रांतिकारी गतिविधियों के लिए गिरफ्तार किया गया था और लाहौर षडयंत्र केस के तहत लाहौर जेल में कैद किया गया था.

लाहौर जेल में, जतिन दास ने अन्य क्रांतिकारी सेनानियों के साथ भूख हड़ताल शुरू कर दी,
भारतीय कैदियों और विचाराधीन कैदियों के लिए समानता की मांग की.
भारतीय कैदियों के लिए वहां सब दुखदायी था- जेल प्रशासन द्वारा उपलब्ध कराई गई वर्दियां कई कई दिनों तक नहीं धुलती थी, रसोई क्षेत्र और भोजन चूहे और तिलचट्टों से भरा रहता था, कोई भी पठनीय सामग्री जैसे अखबार या कोई कागज आदि नहीं प्रदान किया गया था,
जबकि एक ही जेल में अंग्रेजी कैदियों की हालत विपरीत थी...
 
जेल में जतिन दास की भूख हड़ताल अवैध नजरबंदियों के खिलाफ प्रतिरोध में एक महत्वपूर्ण कदम था.
यह यादगार भूख हड़ताल 13 जुलाई 1929 को शुरू हुई और 63 दिनों तक चली.
जेल अधिकारीयों ने जबरन जतिन दास और अन्य स्वतंत्रता सेनानियों को खिलाने की कोशिश की, उन्हें मारा पीटा गया और उन्हें पीने के पानी के सिवाय कुछ भी नहीं दिया गया, जतिन दास ने पिछले 63 दिनों से कुछ नहीं खाया था तो वो
13 सितंबर को शहीद हुए और उनकी भूख हड़ताल (अनशन) अटूट रही...
 
उनके शरीर को रेल द्वारा लाहौर से कोलकाता के लिए ले जाया गया...
हजारों लोगों उस सच्चे शहीद को अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए रास्ते के स्टेशनो की तरफ दौड़ पड़े... 
उनके अंतिम संस्कार के समय कोलकाता में दो मील लंबा जुलूस अंतिम संस्कार स्थल के पास था...

आज 13 सितम्बर 2011 को उनकी 82 वीं पुण्य तिथि पर,
उस महान देशभक्त को शत-शत नमन...
वन्दे-मातरम्...
जय हिंद...जय भारत...

 



भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की सबसे छोटी उम्र की क्रांतिकारी तरुणियाँ...

भगत सिंह की फांसी का बदला लेने के लिए भारत की आज़ादी के क्रांतिकारी इतिहास की सबसे तरुण बालाएं शांति घोष और सुनीति चौधरी ने 14 दिसम्बर 1931 को त्रिपुरा के कोमिल्ला के जिला मजिस्ट्रेट CGB स्टीवन को गोली मार दी.. ये लड़कियां केवल 14 साल की थी.. दोनों CGB स्टीवन के बंगले पर तैराकी क्लब के लिए प्रार्थना पत्र लेकर गई और जैसे ही स्टीवन सामने आया वो दोनों माँ भवानी जैसे रौद्र रूप में आ गई... दोनों ने रिवोल्वर निकाल कर स्टीवन पर ताबड़ तोड़ गोलियां बरसा दी... स्टीवन वहीँ ढेर हो गया...
इन युवा लड़कियों के साहसिकता पूर्ण कार्य से संपूर्ण देश अचंभित और रोमांचित था..


आइये जाने हमारे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की सबसे छोटी उम्र की क्रांतिकारी तरुणियों के बारे में-


शान्ति घोष-
स्वामी विवेकानंद ने एक बार भारतीय युवकों का आह्वान किया, "मत भूलो कि तुम्हारा जन्म मातृभूमि की वेदी पर स्वयं को बलिदान करने के लिए हुआ है.."
एक दिन किसको पता था कि स्वामी जी की नजदीकी बहन की पोती शांति घोष स्वामी जी के इस सन्देश के लिए अपना किशोर जीवन देश की स्वतंत्रता के लिए समर्पित कर देगी..

शांति घोष 22 नवम्बर 1916 को कलकत्ता में पैदा हुई.. उनके पिता देवेन्द्र नाथ घोष मूल रूप से बारीसाल जिले के थे, कोमिल्ला कॉलेज में प्रोफ़ेसर थे... उनकी देशभक्ति की भावना ने शांति को कम उम्र से ही प्रभावित किया..
शांति की हस्ताक्षरित पुस्तक (Autograph Book ) पर प्रसिद्द क्रांतिकारी बिमल प्रतिभा देबी ने लिखा "बंकिम की आनंद मठ की शांति जैसी बनना".. नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने लिखा," नारीत्व की रक्षा के लिए, तुम हथियार उठाओ, हे माताओ.."
इन सबके के आशीर्वाद ने युवा शांति को प्रेरित किया और उसने स्वयं को उस मिशन के लिए तैयार किया..
जब वह फज़ुनिस्सा गर्ल्स स्कूल की छात्रा थी तो अपनी सहपाठी प्रफुल्ल नलिनी के माध्यम से 'युगांतर पार्टी' में शामिल हुई.. और क्रांतिकारी कार्यों के लिए आवश्यक प्रशिक्षण लिया..
और जल्द ही वह दिन आया उन्होंने अपना युवा जीवन मुस्कुराते हुए बहादुरी से मातृभूमि को समर्पित कर दिया..
14
दिसम्बर 1931 को अपनी सहपाठी सुनीति चौधरी के साथ कोमिल्ला के जिला मजिस्ट्रेट CGB स्टीवन को गोली मार दी..
इन युवा लड़कियों के साहसिकता पूर्ण कार्य से संपूर्ण देश अचंभित और रोमांचित था..
लाखों देशवासियों की प्रशंसा और स्नेह को साथ लेकर शांति अपनी साथी सुनीति के साथ आजीवन कारावास के लिए चली गयी..
जेल में शांति और सुनीति को कुछ समय अलग रखा गया.. यह एकांत कारावास चौदह साल की लड़कियों के लिए दुखी कर देने वाला था..

1937
में उन्हें कई राजनैतिक कैदियों के साथ शीघ्र रिहाई मिली... उन्होंने फिर से अपनी पढ़ाई शुरू की.. 1942 में उन्होंने चटगाँव के एक भूतपूर्व क्रांतिकारी कार्यकर्ता श्री चितरंजन दास से शादी की... शांति एक लम्बे समय (1953 -1968 ) तक पश्चिम बंगाल विधान परिषद् और विधानसभा की सदस्या रहीं..
उनकी आत्मकथा पुस्तक 'अरुनबानी' ने बहुत प्रशंसा प्राप्त की थी...
28
मार्च 1989 को श्रीमती शांति घोष (दास) का स्वर्गवास हो गया...
उनके उत्तराधिकारियों में पौत्र चंदर दास (जो वोडाफोन कोलकाता में काम करते हैं) और पौत्रवधु हैं, जो कोलकाता में रहते हैं..



सुनीति चौधरी-
सुनीति चौधरी, स्वतंत्रता संग्राम में एक असाधारण भूमिका निभाने वाली का जन्म मई 22, 1917 पूर्वी बंगाल के त्रिपुरा जिले के इब्राहिमपुर गाँव में एक साधारण हिंदू मध्यवर्गीय परिवार में हुआ था... उनके पिता चौधरी उमाचरण सरकारी सेवा में थे और माँ  सुरससुन्दरी चौधरी, एक शांत और पवित्र विचारों वाली औरत थी जिन्होंने सुनीति के तूफानी कैरियर पर एक गहरा प्रभाव छोड़ा.. जब वह छोटी लड़की स्कूल में थी तो उसके दो बड़े भाई कॉलेज में क्रांतिकारी आन्दोलन में थे..
सुनीति युगांतर पार्टी में अपनी सहपाठी प्रफुल्ल नलिनी द्वारा भर्ती की गई थी.. कोमिल्ला में सुनीति छात्राओं के स्वयंसेवी कोर की कप्तान थी.. उनके शाही अंदाज और नेतृत्व करने के तरीके ने जिले के क्रांतिकारी नेताओं का ध्यान खींचा..सुनीति को गुप्त राइफल ट्रेनिंग और हथियार (छुरा) चलाने के लिए चुना गया...
इसके तुरंत बाद वह अपनी सहपाठी शांति घोष के साथ एक प्रत्यक्ष कार्रवाई के लिए चयनित हुई और  यह निर्णय लिया गया कि उन्हें सामने आना ही चाहिए..
एक दिन 14 दिसंबर 1931 दोनो लड़कियां कोमिल्ला के जिला मजिस्ट्रेट CGB स्टीवन के बंगले पर तैराकी क्लब की अनुमति की याचिका लेकर गई और जैसे ही स्टीवन सम्मुख आया उस पर पिस्तोल से गोलियां दाग दी... सुनीति के रिवोल्वर की पहली गोली से ही वो मर गया.. इसके बाद उन लड़कियों को गिरफ्तार कर किया गया और निर्दयता से पीटा गया...

कोर्ट में और जेल में वो लड़कियां खुश रहती थी.. गाती रहती थी और हंसती रहती थी... उन्हें एक शहीद की तरह मरने की उम्मीद थी, लेकिन उनके नाबालिग होने ने उन्हें आजीवन कारावास की सजा दिलाई..
हालांकि वो थोड़ा निराश थी लेकिन उन्होंने इस निर्णय को ख़ुशी से और बहादुरी से लिया और कारागार में प्रवेश किया, कवि नाज़ुरल के प्रसिद्ध गीत "ओह, इन लोहे की सलाखों को तोड़ दो, इन कारागारों को जला दो.." को गाते हुए..

सात साल बाद रिहाई मिलने के बाद उन्होंने निडर भावना के साथ संघर्ष भरे जीवन का सामना किया और फिर से अपनी पढ़ाई शुरू की और MBBS की डिग्री हासिल की और 1947 में प्रद्योत घोष से शादी कर ली, उनके एक पुत्री हुई...
1994
में श्रीमती सुनीति चौधरी (घोष) का स्वर्गवास हुआ..

                                                                                 विडियो साभार- यू ट्यूब...
आज के बच्चों को ऐसे क्रांतिकारियों के प्रेरणादायी इतिहास के बारे में नहीं बताया जाता बल्कि उन कथित 'पिता' 'चाचा' के बारे में झूठी कहानियां बताई जाती हैं जिन्होंने सत्ता की 'मलाई' बरसो चाटी और आज भी वही देश के 'मसीहा' बने बैठे हैं...
वन्दे मातरम...
जय हिंद... जय भारत...