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Sunday 11 March 2012

देशद्रोही


गजनी का बादशाह शाहबुद्दीन गौरी अपने निश्चय का पक्का और एक महत्वाकांक्षी व्यक्ति था... भारत पर अपनी विजय पताका फहराने की उसकी महत्वाकांक्षा उसके सिंहासनारूढ़ होते ही जन्म चुकी थी... वह भारत को विजय कर वहां अपना राज्य स्थापित करना चाहता था.. सदैव के लिए उसे अपने वंश के अधिकार में करना चाहता था... उसकी दृष्टि में इस्लाम की सच्ची सेवा काफिरों के मन्दिरों को नष्ट करके और नगरों को लूट-उजाड़ कर धन एकत्रित करने में नही थी अपितु उन पर इस्लाम का एकछत्र शासन स्थापित कर उन्हें शरियत(इस्लाम) के सिद्धांतों के अनुसार चलाने में थी.. वह भारत का विजयी लुटेरा नही बनना चाहता था, अपितु शहंशाह बनना चाहता था... इसलिए वह बहुधा अपने पूर्ववर्ती सुलतान, महमूद गजनवी के लिए कहा करता था-

" सुल्तान महमूद बहादुर और मूर्ख लुटेरा था.. समझदार और काबिल शासक नही."

सुलतान शाहबुद्दीन की इस महत्वाकांक्षा की पूर्ति में एकमात्र किन्तु प्रबल रोड़ा था, दिल्ली-पति सम्राट पृथ्वीराज चौहान... पृथ्वीराज के राज की सीमा सुल्तान की सीमाओं से लगी हुई थी... भारतवर्ष के समस्त राजा पृथ्वीराज को अपना सम्राट मान चुके थे... जो राजा कन्नौजपति जयचंद के अधीन थे वे भी पृथ्वीराज से सदैव भयभीत रहते थे... पृथ्वीराज के पराक्रमी सामंत, बलिष्ठ सेना और विलक्षण व्यक्तित्व के कारण किसी को उसके राज्य की ओर आँख उठाने का साहस नही होता था... स्वयम सुलतान शाहबुद्दीन गौरी सीमा के युद्धों में पृथ्वीराज के पराक्रमी सामंतों से पराजित होकर कई बार मैदान छोड़ चुका था... कई बार वह बंदी बनाकर क्षमा कर दिया गया था... अंतिम बार उसने पूरी शक्ति ओर ताकत के साथ भारत पर आक्रमण किया था किन्तु इस बार भी तराइन के युद्ध में उसे पूर्णतया पराजित होना पड़ा था.. चामुंडराय ने उसे इस बार भी बंदी बना लिया था, किन्तु पृथ्वीराज ने दंड लेकर उसे फिर क्षमा कर दिया था...
गौरी को अपनी पराजय से अधिक दुखदायी पृथ्वीराज द्वारा उसे दी गई क्षमा लग रही थी... पराजय में केवल अपनी तैयार शक्ति ओर हिम्मत की न्यूनता का ही बोध होता है किन्तु शत्रु द्वारा दी गई क्षमा में शत्रु की शक्ति ओर साहस के साथ साथ उसके बडप्पन और महत्व की भी स्वीकृति समाहित होती है... सुल्तान गौरी अपनी बार बार की पराजय से तो खिन्न था ही, वह पृथ्वीराज की क्षमा से लज्जित और अपमानित भी था...

अब उसने अपनी महत्वाकांक्षा, पराजय और क्षमा जनित अपमान की अग्नि को बुझाने की प्रतिशोध की भावना, इन दो सहयोगी मानस शक्तियों से प्रेरित होकर कार्य करना आरम्भ किया... उसने अब तक प्राप्त अनुभव के आधार पर नई प्रणाली से अपनी सेना का संगठन किया.. अतुल मात्रा में सामग्री एकत्रित की... राजपूतों की युद्ध प्रणाली को ध्यान में रखते हुए नई प्रणाली द्वारा सेना को प्रशिक्षित किया और वह सब प्रकार से एक बार फिर भारत पर आक्रमण करके अपने विपरीत भाग्य की परीक्षा लेने को तैयार हो गया...

ठीक उसी समय उसे कन्नौजपति जयचंद से सन्देश मिल चुका था...
"हमारे साथ युद्ध में पृथ्वीराज की बहुत अधिक शक्ति क्षीण हो चुकी है... आप एक बार फिर उसके राज्य पर आक्रमण करो... इस बार आपकी विजय निश्चित है... हम इस युद्ध में पूर्ण तटस्थ रहेंगे... वह जैसा आपका शत्रु है वैसा हमारा भी शत्रु है..."

यह सन्देश सुलतान गौरी के भाग्योदय की निश्चित रूप से ही अग्रिम सूचना थी... किन्तु सुल्तान गौरी को अपने भाग्योदय पर विश्वास नही हो रहा था... अब भी उसे अपनी शक्ति और तैयारी पृथ्वीराज की तुलना में नगण्य और अपर्याप्त लग रही थी... बार बार की पराजय से उसके दृढ़ मन को आत्म लघुत्व की भावना दबा चुकी थी... वह राजपूतों के प्रबल पराक्रम और अदभुत रण-कौशल के स्मरण मात्र से भयभीत था... उससे कहीं अधिक भयभीत उसके सैनिक और सेनापति थे... वे इस बार किसी भी दशा में फिर मौत के मुंह में जाने के लिए तैयार नही थे... किन्तु सुलतान के भय और अपनी व्यक्तिगत प्रतिष्ठा के कारण कोई भी सैनिक अथवा सेनापति अपनी वास्तविक मनोदशा को सुलतान के सामने प्रकट नही कर रहा था किन्तु मानव स्वभाव को गहराई से समझने की स्वाभाविक बुद्धि शक्ति वाले सुलतान से अपनी सेना का नैतिक स्तर और व्याप्त हीन मनोवृति छिपी हुई नही थी... वह भली-भांति जानता था कि उसके सेनापति और सैनिक राजपूतों से अपने को हीन और क्षीण समझते थे... इसलिए वह प्रत्येक मनोवैज्ञानिक उपाय से अपनी सेना का साहस और नैतिक स्तर ऊपर उठाने में लगा हुआ था पर फिर भी वह यह अनुभव कर रहा था कि उसकी सेना अब तक राजपूतों का मुकाबला करने के लिए पर्याप्त रूप से नैतिक दृष्टि से तैयार और शक्ति संपन्न नही हो पाई थी...

इन्ही सब परिस्थितियों और दुविधाओं में सुलतान गौरी एक दिन अपने मुख्य सरदारों और सेनापतियों से घिरा हुआ गजनी के दरबार में बैठा हुआ था... इसो समय द्वार रक्षक ने आकर सूचना दी- "जहाँ पनाह ! पृथ्वीराज का एक सिपहसालार हजूर की खिदमत में हाजिर होना चाहता है.."

मन ही मन में- " यह मुझे गुप्तचरों से पहले ही मालूम हो गया है, किन्तु पृथ्वीराज का सिपहसालार और मेरी खिदमत में हाजिर होना चाहता है... क्या मामला है?"

प्रकट - "उसे फ़ौरन यहाँ आने की इजाजत दो.."
उसी समय एक बलिष्ठ यौद्धा ने गजनी दरबार में प्रवेश किया... उसका चेहरा सुलतान को एकदम परिचित सा लगा.. उसने अपनी स्मरण शक्ति पर जोर देकर विचारों को पुनः संचित किया...
"सरहद की लड़ाइयों में यह कई बार हमारे खिलाफ लड़ चुका था... हाँ, उस दिन कैद होने के बाद इसी ने हमारे घायल हाथ से सबसे पहले आगे बढ़कर तलवार छीनी थी... इसका नाम.....?? इसका नाम.....? शायद हुगली... नही नही हुहुली राय है..."

इतने में उस सामंत ने झुककर सुलतान को अभिवादन किया और अपना परिचय देते हुए बोल उठा-
"मैं दिल्लीपति पृथ्वीराज का सामंत हुहुलीराय हूँ..."

"हाँ, हम तुम्हे अच्छी तरह जानते हैं, हुहुली राय ! तुम्हारे बहादुर दिल और फौलादी हाथों की करामात हम कई बात देख चुके हैं.. कहो यहाँ कैसे आये? तुम्हारे बहादुर मालिक और दूसरे सब लोग ठीक तो हैं.?"

सामंत ने इस प्रश्न का कुछ भी उत्तर नही दिया... उसने आगे बढ़कर मिटटी का एक सुन्दर ढांचा सुलतान के पैरों के पास रख दिया...

"यह क्या है हुहुली राय?"

"यह वह सब कुछ है जिसको पाने के लिए आप अब तक प्रयत्न करते आये हैं..."

सुलतान ने देखा है कि वह किसी किले का नमूना है जिसके एक आँगन में सिंहासन पर कोई व्यक्ति बैठा हुआ था... पहले वह एक टक उस मिट्टी के नमूने की ओर देखता रहा.. उसकी समझ में कुछ भी तो नही आ रहा था... सहसा उसे ध्यान आया कि वह रचना दिल्ली के किले की थी.. हाँ, वह दिल्ली का ही किला था किन्तु उसमे सिंहासन पर बैठा हुआ वह व्यक्ति कौन था- सुलतान ने सोचा - "अगर यह नमूना दिल्ली के किले का ही है वह आदमी भी जरुर पृथ्वीराज ही होगा... पृथ्वीराज को उसी का एक सिपहसालार मेरे पैरों में बैठा रहा है... आखिर बात क्या है?"

"यह क्या तोहफा लाये हो, हुहुली राय ! हमारे कुछ भी समझ में नही आ रहा है..."

"इस तोहफे के रूप में दिल्ली और पृथ्वीराज को आपके चरणों में रख रहा हूँ..."

"हैं? यह कैसे हुहुली राय ! तुम तो पृथ्वीराज के वफादार सिपहसालार हो... बतलाओ, क्या तुम्हारा झगड़ा हो गया है ?"

"केवल झगड़ा ही नही हुआ है... सुलतान, इससे भी बढ़कर बहुत कुछ हो गया है.."

इसके उपरान्त हुहुली राय ने वह सब.....!
( यह कहानी अपूर्ण ही रह गई थी )

लेखक- कुंवर आयुवान सिंह हुडील...
उनकी पुस्तक 'ममता और कर्तव्य' से साभार...

"राष्ट्र सर्वप्रथम सर्वोपरि"
वन्दे मातरम्...
जय हिंद... जय भारत...