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Saturday 31 December 2011

निराधार अंग्रेजी नववर्ष और भारतीय संवत्सर का श्रेष्ठता और वरिष्ठता बोध...

भारत सदैव ही 'विश्व-गुरु' रहा है... फिर हम अपनी 'सर्वश्रेष्ठता का गर्व' क्यों ना करें.??
अंग्रेजी नववर्ष और पश्चिमी 'असभ्यता' का अन्धानुकरण करने वालो...
अपने अन्दर की छुपी हुई मानसिक कायरता की पीठ समय समय पर दिखाने वालो...
अंग्रेजो के मानसिक गुलामो... काले अंग्रेजो...
विश्व की सवश्रेष्ठ सभ्यता भारतीय सभ्यता के बारे में भी जानो--

विक्रम संवत अथवा बिक्रम सम्बत कैलेण्डर भारत में सर्वाधिक प्रयोग होने वाला है जबकि यह नेपाल का आधिकारिक कैलेण्डर है...
विक्रम सम्वत की स्थापना उज्जैन के राजा विक्रमादित्य ने 56 ईसा पूर्व शकों पर अपनी विजय के बाद की थी...
इस विषय में समकालीन राजा चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य का नाम आता है जो गलत है...
यह चन्द्र पंचांग पर आधारित है और प्राचीन हिन्दू पंचांग और वैदिक समय के पंचांग का अनुसरण करता है... यह सौर गणना पर आधारित ग्रेगोरियन कैलेण्डर से 56.7 वर्ष वरिष्ठ है... और वरिष्ठता क्या होती है ये ओलम्पिक में सौ मीटर दौड़ स्पर्धा के द्वितीय स्थान पर आये धावक से पूछना.??
भारत में आधिकारिक रूप से शक संवत को मान्यता प्राप्त है... मगर भारतीय संविधान की 'प्रस्तावना' के हिंदी संस्करण में संविधान को अपनाने की तिथि 26 नवम्बर 1949 विक्रम संवत के अनुसार मार्गशीर्ष शुक्ल सप्तमी संवत 2006 है....
हिन्दू पंचांग हिन्दू समाज द्वारा माने जाने वाला कैलेंडर है.. इसके भिन्न-भिन्न रूप मे यह लगभग पूरे भारत मे माना जाता है... पंचांग नाम पांच प्रमुख भागों से बने होने के कारण है, यह है: पक्ष, तिथी, वार, योग और कर्ण... एक साल मे 12 महीने होते है... हर महिने मे 15 दिन के दो पक्ष होते है, शुक्ल और कृष्ण... पंचांग (पंच + अंग = पांच अंग) हिन्दू काल-गणना की रीति से निर्मित पारम्परिक कैलेण्डर या कालदर्शक को कहते हैं... पंचांग नाम पाँच प्रमुख भागों से बने होने के कारण है, यह है- तिथि, वार, नक्षत्र, योग और करण... इसकी गणना के आधार पर हिंदू पंचांग की तीन धाराएँ हैं- पहली चंद्र आधारित, दूसरी नक्षत्र आधारित और तीसरी सूर्य आधारित कैलेंडर पद्धति... भिन्न-भिन्न रूप में यह पूरे भारत में माना जाता है...
एक साल में 12 महीने होते हैं... प्रत्येक महीने में 15 दिन के दो पक्ष होते हैं- शुक्ल और कृष्ण... प्रत्येक साल में दो अयन होते हैं... इन दो अयनों की राशियों में 27 नक्षत्र भ्रमण करते रहते हैं... 12 मास का एक वर्ष और 7 दिन का एक सप्ताह रखने का प्रचलन विक्रम संवत से शुरू हुआ... महीने का हिसाब सूर्य व चंद्रमा की गति पैर रखा जाता है... यह 12 राशियाँ बारह सौर मास हैं... जिस दिन सूर्य जिस राशि मे प्रवेश करता है उसी दिन की संक्रांति होती है... पूर्णिमा के दिन चंद्रमा जिस नक्षत्र मे होता है उसी आधार पर महीनों का नामकरण हुआ है... चंद्र वर्ष, सौर वर्ष से 11 दिन 3 घड़ी 48 पल छोटा है... इसीलिए हर 3 वर्ष मे इसमे एक महीना जोड़ दिया जाता है जिसे अधिक मास कहते हैं...
जिस तरह जनवरी अंग्रेज़ी का पहला महीना है उसी तरह हिन्दी महीनों में चैत वर्ष का पहला महीना होता है...
हम इसे कुछ इस तरह से समझ सकते हैं-
मार्च-अप्रैल                         -चैत्र (चैत)
अप्रैल-मई                   -वैशाख (वैसाख)
मई-जून                         -ज्येष्ठ (जेठ)
जून-जुलाई                 -आषाढ़ (आसाढ़)
जुलाई-अगस्त              -श्रावण (सावन)
अगस्त-सितम्बर           -भाद्रपद (भादो)
सितम्बर-अक्टूबर         -अश्विन (क्वार)
अक्टूबर-नवम्बर        -कार्तिक (कातिक)
नवम्बर-दिसम्बर      -मार्गशीर्ष (अगहन)
दिसम्बर-जनवरी                  -पौष (पूस)
जनवरी-फरवरी                   -माघ (माह)
फरवरी-मार्च                -फाल्गुन (फागुन)
नववर्ष ज़रूर मनाऐं परन्तु इस बार 22 मार्च को हर्षोल्लास के साथ...
ताकि दुनिया को भी पता चले कि हमें अपनी संस्कृति जान से प्यारी है...
हमारा तो नया साल होगा.....
शुभ संवत 2069 जो की प्रभात वेला में, दिए जला कर, मंगल ध्वनियों के साथ,
22 मार्च 2012 को शुभारम्भ होगा... तब हम कहेंगे...
****आपको नव वर्ष की शुभ कामनाएं... *****

आप सबसे अनुरोध है कि भारतीय नव वर्ष का अधिक से अधिक प्रचार-प्रसार और समर्थन करे...

शुभकामनाएं मध्य रात्रि में क्यों नहीं देनी चाहिए.??
संध्या काल के आरम्भ होते ही रज तम का प्रभाव वातावरण में बढ़ने लगता है अतः इस काल में आरती करते हैं और संध्या काल में किये गए धर्माचरण हमें उस रज तम के आवरण से बचाता है... परन्तु आजकल पाश्चात्य संस्कृति के अँधानुकरण करने के चक्रव्यूह में फंसे हिन्दू इन बातों का महत्व नहीं समझते... मूलतः हमारी भारतीय संस्कृति में कोई भी शुभ कार्य मध्य रात्रि नहीं किया जाता है परन्तु वर्तमान समय में एक पैशाचिक कुप्रथा आरम्भ हो गयी है और वह की लोग मध्य रात्रि में ही शुभकामनाएं देते हैं और और फलस्वरूप उन शुभकामनाओं का कोई प्रभाव नहीं पड़ता... जैसे पाश्चात्य संस्कृति के अनुसार नववर्ष मनाते हैं और सभी लोग मध्य रात्रि में ही नए वर्ष की शुभकामनाएं देने लगते हैं... कारण है समाज में धर्म शिक्षण का अभाव है और ऊपर से मीडिया ने सर्व सत्यानाश कर रखा है आजकल गाँव में भी शहरों की तरह सब कुछ होने लगा है... हमारी भारतीय संस्कृति तम से रज और रज से सत्व और ततपश्चात त्रिगुणातीत होने का प्रवास सिखाती है परन्तु आज सात्विकता क्या है यह भी अधिकांश हिन्दुओं को पता नहीं है.??
हिन्दू पर्व मानव के मन में सात्विकता जगाते हैं, चाहे वे रात में हों या दिन में... जबकि अंग्रेजी पर्व नशे और विदेशी संगीत में डुबोकर चरित्रहीनता और अपराध की दिशा में ढकेलते हैं... इसलिए जिन "मानसिक गुलामों" को इस अंग्रेजी और ईसाई नववर्ष को मनाने की मजबूरी हो, वे इसका भारतीयकरण कर मनाएं व एक जनवरी को निर्धनों को भोजन कराएं, बच्चों के साथ कुष्ठ आश्रम, गोशाला या मंदिर में जाकर दान-पुण्य करें, 31 दिसम्बर की रात में अपने गांव या मोहल्ले में भगवती जागरण करें, जिसकी समाप्ति एक जनवरी को प्रातः हो, अपने घर, मोहल्ले या मंदिर में 31 दिसम्बर प्रातः से श्रीरामचरितमानस का अखंड पारायण प्रारम्भ कर एक जनवरी को प्रातः समाप्त करें, एक जनवरी को प्रातः सामूहिक यज्ञ का आयोजन करें, एक जनवरी को प्रातः बस और रेलवे स्टेशन पर जाकर लोगों के माथे पर तिलक लगाएं...

भारतीय संस्कृति के हित में इस कविता को भी याद रखना चाहिए-
अँग्रेजी सन को अपनाया,
विक्रम संवत भुला दिया है...
अपनी संस्कृति, अपना गौरव
हमने सब कुछ लुटा दिया है...
जनवरी-फरवरी अक्षर-अक्षर
बच्चों को हम रटवाते हैं...
मास कौन से हैं संवत के,
किस क्रम से आते-जाते हैं...
व्रत, त्यौहार सभी अपने हम
संवत के अनुसार मनाते हैं...
पर जब संवतसर आता है,
घर-आँगन क्यों नहीं सजाते...
माना तन की पराधीनता
की बेड़ी तो टूट गई है...
भारत के मन की आज़ादी
लेकिन पीछे छूट गई है...
सत्य सनातन पुरखों वाला
वैज्ञानिक संवत अपना है...
क्यों ढोते हम अँग्रेजी को
जो दुष्फलदाई सपना है...
अपने आँगन की तुलसी को,
अपने हाथों जला दिया है...
अपनी संस्कृति, अपना गौरव,
हमने सब कुछ लुटा दिया है...
सर्वश्रेष्ठ है संवत अपना
हमको इसका ज्ञान नहीं हैं...





 









वन्दे मातरम्...
जय हिंद... जय भारत...

Monday 26 December 2011

अभय क्रांतिकारी और अंग्रेजो को उनके घर में घुसकर मारने वाले... वीर शहीद उधम सिंह के जन्म दिवस पर उनको शत शत शत नमन...

शहीद-ए-आजम उधम सिंह एक ऐसे महान क्रांतिकारी थे जिन्होंने जलियांवाला बाग हत्याकांड का बदला लेने के लिए अपना जीवन देश के नाम कुर्बान कर दिया... लंदन में जब उन्होंने माइकल ओ. ड्वायर को गोली से उड़ाया तो पूरी दुनिया में इस भारतीय वीर की गाथा फैल गई...

शहीद उधम सिंह (वास्तविक नाम शेर सिंह जम्मू) का जन्म 26 दिसम्बर 1899 को पंजाब के संगरूर जिले के गांव सुनाम में सिख परिवार में हुआ था.. इनके पिता का नाम सरदार टहल सिंह कंबोज(अमृत लेने से पहले का नाम चुहाड़ सिंह) और माता का नाम नारायणी था.. सरदार टहल सिंह पास के गाँव उपल में रेलवे क्रोसिंग पर चौकीदार थे.. शेर सिंह की माँ का देहावसान 1901 में हुआ और 1907 में उनके पिता भी चल बसे... भाई किशन सिंह रागी की सहायता से बालक शेर सिंह और उसके बड़े भाई मुक्ता सिंह को पुतलीघर, अमृतसर के केंद्रीय खालसा अनाथालय में ले जाया गया... जहाँ उनका नया नामकरण हुआ... शेर सिंह अब उधम सिंह बन गए और मुक्ता सिंह को नाम मिला साधू सिंह... सन 1917 में भाई साधू सिंह की अकाल मृत्यु के बाद उधम सिंह इस दुनिया में अकेले रह गए..
उधम सिंह विभिन्न शिल्प कलाओं में निपुण थे... उन्होंने पंजाबी, हिंदी, उर्दू व अंग्रेजी में निपुणता हासिल की और 1918 में मेट्रिक पास करके, 1919 में अनाथालय छोड़ दिया...

13 अप्रैल 1919 को अमृतसर के जलियांवाला बाग़ में करीब बीस हजार निहत्थे लोग मुख्यत: पंजाबी इकट्ठे हुए.. यह सभा डॉ सत्यपाल और डॉ सैफुद्दीन किचलू की रोलेट एक्ट के तहत गिरफ्तारी के विरोध में थी जिसे कुछ स्थानीय नेताओं ने अंग्रेजी सरकार का विरोध करते हुए सम्बोधित किया... यहाँ पर उधम सिंह अपने अनाथालय के दोस्तों के साथ कडकती गर्मी की दोपहरी के बाद लोगो को पानी पिला रहे थे..
थोड़ी देर बाद ही 90 सैनिकों का एक दल राइफल और खुकरी से लैस होकर दो बख्तरबंद गाड़ियों के साथ जिसमे बहुत सारी मशीन गन थीं, मार्च करता हुआ आ पहुंचा... गाड़ियाँ बाग के अन्दर तंग रास्ते की वजह से प्रविष्ट नही कर पा रही थी.. ब्रिगेडियर-जनरल रेगिनाल्ड डायर के हाथ में कमान थी... सैन्य-दल ने करीब शाम 5 :15 पर बाग़ में प्रवेश किया... बिना किसी चेतावनी के डायर ने फायरिंग करने का आदेश दिया खासतौर से उस जगह जहाँ भीड़ ज्यादा थी... हमला दस मिनट तक जारी रहा.. और एकमात्र प्रवेश द्वार सैनिको द्वारा बंद किया हुआ था... लोगो ने दीवार कूदकर जाने की कोशिश की.. कुछ गोलियों से बचने के लिए कुँए में कूद गए...
एक अनुमान के अनुसार अकेले कुँए से ही 120 लाशें निकाली गई थी.. सैकड़ों लोग मारे गए और हजारों घायल हुए.. आधिकारिक सूत्रों के अनुसार 379 लोग ( 337 आदमी, 41 लड़के और एक छः सप्ताह का बच्चा) मारे गए और 200 जख्मी हुए... अन्य रिपोर्टों के अनुसार एक हजार से ज्यादा 1300 तक लोग मारे गए थे.. पंडित मदन मोहन मालवीय और लाला गिरधारी लाल के अनुसार हजार से ज्यादा लोग मारे गए.. पंडित श्रृद्धानन्द के अनुसार यह संख्या 1500 से ज्यादा थी जबकि अमृतसर के सिविल सर्जन डॉ स्मिथ ने यह संख्या 1800 बताई.. राजनैतिक कारणों से वास्तविक मृत और घायलों की संख्या कभी बताई ही नही गई.. वास्तविक संख्या पर बहस आज तक जारी है... आधिकारिक सूत्रों के अनुसार करीब 1650 गोलियां चलाई गई थी...

इस जघन्य हत्याकाण्ड के लिए उधम सिंह ने मुख्य रूप से पंजाब के लेफ्टिनेंट गवर्नर माइकल ओ डायर को दोषी माना.. नए खुलासो के अनुसार इस हत्याकांड को अंग्रेजी सरकार का समर्थन था और वो भारतियों को सबक सिखाना चाहते थे ताकि सारे भारत और पंजाब में उनका भय बना रहे...
इस घटना ने उधम सिंह को हिला कर रख दिया.. और उनके जीवन में एक नया मोड़ ला दिया...
उधम सिंह ने स्वर्ण मन्दिर के पवित्र सरोवर में स्नान करके प्रतिज्ञा ली कि वो इस घटना का प्रतिशोध लेंगे और देश का सम्मान पुनर्स्थापित करेंगे...

उधम सिंह सक्रिय राजनीति में कूद पड़े और एक समर्पित क्रांतिकारी बन गए..  उन्होंने अनाथालय छोड़ दिया और एक देश से दूसरे देश घूमने लगे, अपने गुप्त उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए, लंदन में अपने शिकार तक पहुंचने के लक्ष्य के लिए जीवन के विभिन्न चरणों में उन्होंने शेर सिंह, ऊधम सिंह, उधन सिंह, उड़े सिंह, उदय सिंह, फ्रैंक ब्राजील, और राम मोहम्मद सिंह आजाद आदि नाम रखे..  वह 1920 में अफ्रीका पहुँचे, 1921 में नैरोबी के लिए आगे बढे... उधम सिंह ने संयुक्त राज्य अमेरिका के लिए कोशिश की लेकिन असफल रहे... वह 1924 में भारत लौटे और उसी वर्ष अमेरिका पहुंचे जहाँ उधम सिंह सक्रिय रूप से ग़दर पार्टी में शामिल हो गए...  ग़दर पार्टी भारतीय समूह था जो अपनी क्रांतिकारी गतिविधियों और संस्थापक सोहन सिंह भकना के नाम से जाता था... उधम सिंह ने स्वतंत्रता संग्राम के लिए अमेरिकी और संगठित प्रवासी भारतीयों में क्रांतिकारी गतिविधियों के लिए तीन साल बिताए... भगत सिंह के आदेश पर वह जुलाई 1927 में भारत लौट आए... वह अमेरिका से 25 साथियों के साथ रिवाल्वर और गोला बारूद की एक खेप लाये थे... 30 अगस्त 1927 को ऊधम सिंह को अमृतसर में बिना लाइसेंस हथियारों के लिए गिरफ्तार किया गया था... कुछ रिवाल्वर, गोला - बारूद और निषिद्ध ग़दर पार्टी  के "ग़दर-इ-गूंज" ("विद्रोह की आवाज") की कागज की प्रतियां जब्त की गई... उन पर शस्त्र अधिनियम की धारा 20 के तहत मुकदमा चलाया गया था... उधम सिंह को पांच साल सश्रम कारावास की सजा सुनाई गई थी... वह चार साल के लिए जेल में रहे... भारतीय क्रांति के शिखर चन्द्रशेखर आजाद और भगत सिंह और उनके साथी राजगुरु-सुखदेव अब इस दुनिया में नही थे...
ऊधम सिंह को जेल से 23 अक्टूबर 1931 को रिहा किया गया था... वह अपने पैतृक गाँव सुनाम के लिए लौट आए, लेकिन उनकी क्रांतिकारी गतिविधियों के कारण स्थानीय पुलिस द्वारा लगातार उत्पीड़न के कारण वो वापस अमृतसर आये... वहां उन्होंने राम मोहम्मद सिंह आजाद नाम के साथ साइन बोर्ड पेंटर की दूकान खोल ली..
तीन साल तक ऊधम सिंह ने पंजाब में अपनी क्रांतिकारी गतिविधियों को जारी रखा और लंदन तक पहुँचने के लिए ओ' डायर की हत्या की योजना पर भी काम किया... उनके आंदोलनों पर पंजाब पुलिस द्वारा लगातार निगरानी की जा रही थी...  वह 1933 में अपने पैतृक गांव चले गए और फिर वहां से कश्मीर में एक गुप्त क्रांतिकारी मिशन पर, जहाँ वो पुलिस की नजर से दूर थे और जर्मनी के लिए भाग निकले...
उधम सिंह अंतत: 1934 में लंदन पहुँच गए और 9 एडलर स्ट्रीट, व्हाइटचैपल (ईस्ट लंदन) कमर्शियल रोड के पास रहने लगे...
ब्रिटिश पुलिस की गुप्त रिपोर्ट के मुताबिक, उधम सिंह 1934 के शुरूआती समय तक भारत में थे, फिर वह इटली पर पहुंच गए और 3-4 महीनों के लिए वहाँ रुके थे... इटली से वह फ्रांस, स्विट्जरलैंड और ऑस्ट्रिया के लिए रवाना हुए और अंतत: 1934 में इंग्लैंड पहुंच गए, जहां उन्होंने कार खरीदी और यात्रा के उद्देश्यों के लिए अपनी कार का इस्तेमाल किया... उनका असली उद्देश्य तथापि, हमेशा माइकल ओ' डायर ही था... उधम सिंह ने एक छः चैंबर रिवॉल्वर एमुनेशन के साथ खरीदी...कई अवसरों को छोड़ने के बावजूद, उधम सिंह एक सही समय की प्रतीक्षा कर रहे थे ताकि वह हत्या को अधिक प्रभावी बना सकें और वैश्विक ध्यान आकर्षित कर सकें...

जलियांवाला बाग़ हत्याकांड के 21 साल बाद वह अवसर 13 मार्च 1940 को आया जब ईस्ट इंडिया एसोसिएशन और रायल सेंट्रल एशियन सोसायटी की एक संयुक्त बैठक काकस्टन हॉल में निर्धारित हुई...

और वक्ताओं में माइकल ओ' डायर भी था...
उधम सिंह ने अपनी रिवाल्वर किताब में छुपाई जो बीच में से रिवाल्वर के आकार में काटी हुई थी और काकस्टन हॉल में फ्रैंक ब्राजील नामक वर्दीधारी सैनिक के रूप में प्रवेश कर लिया... और दीवार के पीछे स्थिति संभाल ली... बैठक के अंत में जब सब लोग उठ खड़े हुए और डायर, जेटलैंड से बात करने के लिए मंच की ओर चला गया... उधम सिंह ने अपनी रिवाल्वर निकाल कर डायर पर दो फायर किये और वो तुरंत मर गया..फिर उधम सिंह ने भारत के राज्य सचिव जेटलैंड पर गोली चलाई और उसे घायल कर दिया लेकिन गंभीर नहीं... फिर उन्होंने लुइस डेन को एक गोली मार दी, जिससे उसकी रेडियस हड्डी टूट गई और गंभीर चोटों के साथ भूमि पर गिर पड़ा.. एक गोली लोर्ड लैमिंगटन के दायें हाथ पर लगी थी... ऊधम सिंह का भागने का कोई इरादा नहीं था... उन्हें मौके पर ही गिरफ्तार कर लिया गया...
उनके हथियार, एक चाकू, उनकी डायरी, उस दिन चलाई गोली के साथ अब स्कॉटलैंड यार्ड के 'ब्लैक संग्रहालय' में रखे हैं...

विडंबना यह है कि प्रेस को एक बयान में, महात्मा गांधी ने काक्सटन हॉल शूटिंग की निंदा की थी और कहा- "the outrage has caused me deep pain. I regard it as an act of insanity...I hope this will not be allowed to affect political judgement".
एक सप्ताह के बाद उनके समाचार पत्र 'हरिजन' ने लिखा-- "We had our differences with Michael O'Dwyer but that should not prevent us from being grieved over his assassination. We have our grievances against Lord Zetland. We must fight his reactionary policies, but there should be no malice or vindictiveness in our resistance. The accused is intoxicated with thought of bravery".
जवाहर लाल नेहरू ने अपने नेशनल हेराल्ड में लिखा है--
"Assassination is regretted but it is earnestly hoped that it will not have far-reaching repercussions on political future of India. We have not been unaware of the trend of the feeling of non-violence, particularly among the younger section of Indians. Situation in India demands immediate handling to avoid further deterioration and we would warn the Government that even Gandhi's refusal to start civil disobedience instead of being God-send may lead to adoption of desperate measures by the youth of the country".

नेताजी सुभाष चंद्र बोस ही अकेले सार्वजनिक नेता थे जिन्होंने ऊधम सिंह की कार्रवाई को मंजूरी दी..
RC Aggarwara 'भारत और राष्ट्रीय आंदोलन के संवैधानिक इतिहास' में लिखते हैं-- ऊधम सिंह के साहसिक कृत्य ने भारत के स्वतंत्रता संग्राम में नए सिरे से संघर्ष के लिए बिगुल फूंका...
वीर सावरकर ने इसे वीरतापूर्ण कार्य बताया…
दुनिया भर के प्रेस व अखबारों ने जलियांवाला बाग की कहानी को याद किया और माइकल ओ' डायर को इन घटनाओं के लिए पूरी तरह जिम्मेदार ठहराया...
लंदन के टाइम्स द्वारा उधम सिंह को "स्वतंत्रता का लड़ाका" बताया गया था और उनकी कार्रवाई को " दलित भारतीय लोगों के मन में दबे हुए रोष की अभिव्यक्ति "...
Bergeret, रोम से बड़े पैमाने में प्रकाशित, में साहसी के रूप में ऊधम सिंह की कार्रवाई की प्रशंसा की...

पुलिस कस्टडी में उधम सिंह ने टिप्पणी की- "क्या जैटलैंड मर गया.??" अपने पेट के बायीं तरफ हाथ से इशारा करते हुए उधम सिंह ने कहा- "मैंने उसके यहाँ पर दो डाली थी..सही यहाँ पर.."
उसके बाद कुछ मिनट उधम सिंह चुप रहे और फिर कहा- "केवल एक ही मरा?? ओह... मैंने तो सोचा मैंने ज्यादा मारे हैं.. मैं धीमा हो गया था... तुम्हे पता है .. वहाँ बहुत सारी महिलायें थी.."

1 अप्रैल 1940 को ऊधम सिंह पर औपचारिक रूप से माइकल ओ' डायर की हत्या का आरोप लगाया गया था...
जबकि ब्रिक्सटन जेल में ऊधम सिंह सुनवाई का इंतजार कर 42 दिन भूख हड़ताल पर चले गए और उन्हें रोज जबरन खिलाया जाता था...
 4 जून 1940, को सुनवाई में उनसे जब नाम पूछा गया

तो उन्होंने बताया-"राम मोहम्मद सिंह आजाद"..
उधम सिंह को दोषी पाया गया और जस्टिस एटकिंसन ने उन्हें मौत की सजा सुनाई...
31 जुलाई 1940 को ऊधम सिंह को पेंटोनविले जेल में फांसी पर लटका दिया था... उस दोपहर के बाद में जेल के मैदान के भीतर दफनाया गया था...

जुलाई 1974 में सुल्तानपुर लोधी के विधायक एस साधु सिंह थिंड ने शहीद उधम सिंह के अवशेषों को स्वदेश प्रत्यावर्तित करने का अनुरोध किया और इंदिरा गाँधी से ब्रिटिश सरकार से बात करने को कहा.. और ब्रिटिश सरकार ने शहीद के अवशेष लौटाने की बात स्वीकार कर ली... स्वयं विधायक एस साधु सिंह थिंड भारत सरकार के विशेष दूत बनकर इंग्लैंड गए और शहीद उधम सिंह के अवशेष भारत लेकर आये.. स्वदेश आने पर 'शहीद' जैसा स्वागत किया गया.. दिल्ली हवाई अड्डे पर 'देह अवशेष ताबूत' का स्वागत करने वाले डॉ शंकर दयाल शर्मा जो उस समय कांग्रेस के अध्यक्ष थे और ज्ञानी जैल सिंह, पंजाब के मुख्यमंत्री थे... इंदिरा गांधी, प्रधानमंत्री ने भी पुष्पांजलि अर्पित की... बाद में पंजाब के उनके जन्मस्थान सुनाम में अंतिम संस्कार किया गया..
उनकी राख और अस्थियों को सतलुज नदी में विसर्जित किया गया.. 

और भारत का महान शहीद भारत में ही विलीन हो गया..


















वन्दे मातरम्...
जय हिंद... जय भारत...


Monday 7 November 2011

एक सन्देश संसार की सबसे साहसी और स्वाभिमानी कौम 'राजपूत' के नाम...

एक सन्देश संसार की सबसे साहसी और स्वाभिमानी कौम के नाम-
जागो राजपूतों जागो...
अपने कर्तव्यों को पहचानो... अपने आत्म-सम्मान और गौरव का ध्यान करो...
धर्म की ध्वजा को राजपूत महारथियों ने सदा ही सर्वोच्चता दी है...

वीर क्षत्रिय वंशों ने सदियों तक महान 'आर्याव्रत' पर सुशासन किया है..
 

लेकिन अब कांग्रेस और उसके नेताओं ने अपने स्वार्थों के लिए भगवान् श्री राम के अस्तित्व को नकारा है और देश की जनता को जिस 'रामराज्य' का दिवा-स्वप्न दिखाकर 'मूर्ख' बनाया है, उस रामराज्य के संस्थापक पुरुषोत्तम श्री राम 'संपूर्ण' राजपूत ही थे...
 

मानव सभ्यता की वर्तमान पांच सदियों को छोड़ दे तो भारत को 'विश्व गुरु' और 'सोने की चिड़िया' कहलवाने का श्रेय सिर्फ क्षत्रिय राजाओं को जाता है...
महान सम्राट चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य, सम्राट अशोक, सम्राट हर्षवर्धन आदि यशस्वी क्षत्रिय राजाओं का राज्याधिकार संपूर्ण 'अखंड भारत' पर रहा है... 
 

राजपूत वीरों ने इस देश के लिए हमेशा बलिदान दिए हैं...
देश के 'प्रथम स्वतंत्रता सेनानी' महाराणा प्रताप के शौर्य का कोई सानी नहीं है...
वीर पृथ्वी राज चौहान, राजा अनंगपाल तौमर, दिल्ली के अंतिम हिन्दू सम्राट वीर हेमादित्य (हेमू), राणा सांगा, राणा कुम्भा, राजा मालदेव राठोड, वीर दुर्गादास राठोड, वीरवर महाराव शेखा जी और अन्य असंख्य वीर राजपूत राजाओ ने राजपूताना की धरती को अपने साहस और वीरता से सुशोभित किया है...
वर्तमान समय में भी देश की सेना में दुश्मन से लोहा लेने वालों में और वीरगति प्राप्त करने वालों में राजपूत वीर कम नहीं हुए हैं...

मेरे भारत के मुकुट के कोहिनूरो, राजपूत सरदारों...

मेरा इस लेख को लिखने का उद्देश्य अपने मुहं से अपनी बड़ाई करना बिलकुल नहीं है.. बल्कि मेरा लक्ष्य आप सबको आपके अस्तित्व के कडवे सत्य का अहसास कराना है...
आज समय की पुकार है.. कि हमें अपने खोये हुए गौरव को पुनः अर्जित करना है... अपनी बाजुओं को फिर कसना है.. फिर भरना है वो जोश और जूनून अपने सीनों में अपनी मातृभूमि के लिए, अपने राष्ट्र भारत के लिए...

विभिन्न प्रकार के नशों ने, संस्कारों की कमी ने, भौतिक सुखों की लालसा ने और बिना खून पसीना बहाए धनार्जन के दिवा-स्वप्नों ने हम राजपूत वीरों की युवा पीढ़ी को पथ-भ्रष्ट और बर्बाद कर दिया है...
नशे के व्यसन के साथ साथ सबसे बड़ा दुर्गुण कुसंस्कारी होना है... मेरे ऑरकुट मित्र प्रार्थना में आने वाले राजपूतों में 80 % लोग अश्लील होते हैं या फिर उनके मित्र अश्लील होते हैं या फिर उन्होंने ऐसी कम्युनिटी ज्वाइन कर रखी होती है जिसे देखते ही शर्म आ जाये... कुछ ऐसे भी रहे हैं जो बाद में अश्लील सामग्री के साथ पकडे गए और मुझे उन सबको हटाना पड़ा.. मेरे 800 दोस्तों में आठ राजपूत युवा भी नहीं हैं जो राष्ट्रवादी हों.??
यही हाल फेस बुक पर है... किसी राजपूत युवा ने अंग्रेजी शराब या बीयर की फोटो लगा दी तो "CHEERS बन्ना हुकुम" के प्रत्युत्तर इकट्ठे हो जाते हैं.. जैसे उनके हाथ में ही जाम आ गया हो..

मैं जब भी ये सब देखता हूँ और सोचता हूँ तो मुझे इस शूर-वीर जाति का पतन ही नहीं काल समक्ष दिखता है.?
राजपूत युवा हाथ में शराब की बोतल और तलवार लेकर जीप या बाईक पर बैठकर तस्वीर खिंचवाना शान समझता है.. जबकि वास्तव में वो फोटो उनके चारित्रिक ह्रास का प्रमाण होती है..
इन युवाओं को अपने जीवन और समाज की सच्चाई भी नहीं दिखती कि राजपूतों के लिए ना कोई आरक्षण है, ना कहीं सरकारी रोज़गार है, ना गरीब राजपूतों को किसी सरकारी योजना से मदद मिलती है...
और सबसे कडवा सत्य ये है कि... ना ही हम संगठित हैं... 

और ऊपर से युवा-शक्ति 'करेला नीम चढ़ा'...???

इस देश में किसी एक जाति विशेष का इतना बड़ा सामाजिक, आर्थिक और चारित्रिक पतन कभी नहीं हुआ... जितना राजपूत समाज ने पिछले सभी लोकत्रांत्रिक वर्षों में अपना सर्वस्व खोया है... और वो कहते हैं ना 'रस्सी जल गई पर मरोड़ नहीं गई' वो अब भी राजपूतों के साथ है... झूठी शान ने कभी आगे बढ़ने नहीं दिया.. विभिन्न तरह के सामाजिक व्यसनों ने उठने ना दिया... और अब ये हाल है... भूमिहीन राजपूतों की संख्या बढती ही जा रही है...
 

अब भी समय है.. उठो.. जागो.. टटोलो अपने स्वाभिमान को.. कि हम क्या हुआ करते थे.. और आज हमारे हालात क्या हैं.??
हम आज भी संगठित हो जाये और सबके ह्रदय में राष्ट्रवाद की भावना जागृत हो जाए तो अपना भारत आज भी, अब भी 'राजपूताना' बन सकता है...
आवश्यकता है एक बड़े और अटूट संगठन की और प्रबल इच्छा-शक्ति की...

इन्कलाब जिंदाबाद...
वन्दे मातरम...
जय हिंद... जय भारत...


पैलो छत्री धरम, वचन दे नही पलटै..
व्है
साँचो रजपूत, सीस दे बोली सटै..
दूजो
छत्री धरम, जुड्योड़ो जंग ना भज्जै..
कर
थांगी किरपाण, प्राण रै साथै तज्जै..
तीजो
छत्री धरम, आण पै जद अड़ ज्यावै..
आँख
मींचकै जणा, काळ स्यूं भिड़ ज्यावै..
चौथो
छत्री धरम, नहीं सरणागत मोडै..
पड्यो
बखत निज सांस, हित सरणागत तोडै..
धरम
पांचवो छत्री, पीठ पर वार करै नीं..
सत्रु
  निहत्थे कदैसीस तलवार धरै नीं..
छट्ठो
छत्री धरम, जीवै निज हित-अपणहित..
हँसतो
-हँसतो सीस, चढ़ादे मातभौम हित..
नौ
वों छत्री धरम, कदै मिथ्या ना बोलै..
सदा
न्याय-अन्याय, सत्य रै पलडै तोलै..
धरम
ख़ास इक औरगिण्योजा छत्री लेखै..
सत्रू
सामैं कदे, नहीं बो  घुटणा टेकै..




Saturday 22 October 2011

अमर शहीद अशफाक उल्ला खान के 111 वें जन्मदिवस की शुभ-कामनाएं-

क्रांतिकारी शहीद अशफाक उल्ला खान के 111 वें जन्मदिवस पर उनको शत-शत नमन...
 
अशफाकुल्ला खान ने राम प्रसाद बिस्मिल के साथ अपना जीवन माँ भारती को समर्पित कर दिया था... वो भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के महान यौद्धा थे... वो दोनों अच्छे मित्र और उर्दू शायर थे... राम प्रसाद का उपनाम (तखल्लुस) 'बिस्मिल' था, वहीँ अशफाक 'वारसी' और बाद में 'हसरत' के उपनाम से लिखते थे..भारतीय आज़ादी में इन दोनों का त्याग और योगदान युवा पीढ़ियों के लिए धार्मिक एकता और सांप्रदायिक सौहार्द्र की अनुपम मिसाल है... दोनों को एक ही तारीख, दिन और समय पर फांसी दी गई.. केवल जेल अलग अलग (फैजाबाद और गोरखपुर) थी...

अशफाक का जन्म 22 अक्तूबर 1900 को उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर में हुआ.. उनके पिता पठान शफिकुल्लाह खान और माँ मज़हूर-उन-निसा थे..अशफाक उनके चार बेटों में सबसे छोटे थे... उनके पिता पुलिस विभाग में थे...
अशफाक के बड़े भाई रियासत उल्लाह खान राम प्रसाद बिस्मिल के सहपाठी थे.. जब बिस्मिल मैनपुरी षड़यन्त्र के बाद फरार घोषित हुए  तो रियासत उनके बहादुरी और उर्दू शायरी के बारे में छोटे भाई अशफाक को बताते थे... तब से अशफाक अपने काव्यात्मक दृष्टिकोण के कारण बिस्मिल से मिलने के लिए बहुत उत्सुक थे... 1920 में बिस्मिल शाहजहाँपुर आये तो अशफाक ने बहुत बार कोशिश की उनसे संपर्क की लेकिन बिस्मिल ने ध्यान नहीं दिया..

1922 में जब असहयोग आंदोलन शुरू हुआ और शाहजहाँपुर में आंदोलन के बारे में जनता को बताने के लिए बिस्मिल आये... अशफाक उल्लाह ने एक सार्वजनिक बैठक में उनसे मुलाकात की और खुद को दोस्त के एक छोटे भाई के रूप में पेश किया. उन्होंने यह भी बिस्मिल से कहा कि वह 'वारसी' और 'हसरत' के कलम नाम से लिखते हैं... बिस्मिल ने उनकी शायरी की कुछ बात सुनी और तब से वे अच्छे दोस्त बन गए.

पंडित राम प्रसाद बिस्मिल आर्य समाज के एक सक्रिय सदस्य थे... हालांकि उन दोनो मे किसी भी धार्मिक समुदाय के खिलाफ कोई पूर्वाग्रह मन में कभी नहीं था.. इसके पीछे एक ही कारण है कि दोनों का उद्देश्य भारत की आज़ादी था…
1922 में गाँधीजी द्वारा असहयोग आन्दोलन वापस लेने से अशफाक भी उदास थे..
उन्होंने महसूस किया कि भारत जल्द से जल्द आज़ाद हो जाना चाहिए और इसलिए क्रांतिकारियों में शामिल होने का फैसला किया.. क्रांतिकारियों को लगा कि अहिंसा के नरम शब्दों से भारत अपनी आजादी नहीं पा सकता है, इसलिए वे बम, रिवाल्वर और अन्य हथियारों का उपयोग करके भारत में रहने वाले अंग्रेजों के दिलों में डर पैदा करना चाहते थे. हालांकि ब्रिटिश साम्राज्य बड़ा और मजबूत था, लेकिन कुछ अंग्रेज ही देश को चला रहे थे, गांधी और दूसरे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नेताओं द्वारा अपनाई गई कायरता और गैर हिंसक नीति के कारण... 
कांग्रेस के तथाकथित नेताओं द्वारा गैर सहयोग आंदोलन की वापसी से क्रांतिकारी देश भर में बिखरे हुए थे और नए क्रांतिकारी आंदोलन को शुरू करने के लिए पैसे की आवश्यकता थी... एक दिन शाहजहांपुर से लखनऊ की यात्रा में पंडित राम प्रसाद बिस्मिल ने नोटिस किया कि हर स्टेशन पर स्टेशन मास्टर एक रुपयों का बैग गार्ड को देता है जो गार्ड के केबिन में एक तिजोरी में रखे जाते हैं और ये सारा पैसा लखनऊ जंक्शन के स्टेशन अधीक्षक को सौंप दिया गया था. बिस्मिल ने इन सरकारी पैसों को लूटकर उसी सरकार के खिलाफ उपयोग करने का फैसला किया जो लगातार 300 से अधिक वर्षों से भारत को लूट रही थी. बस यही 'काकोरी ट्रेन डकैती' की शुरुआत थी...

अपने आंदोलन को बढ़ावा देने और हथियार और गोला बारूद को खरीदने के लिए क्रांतिकारियों ने 8 अगस्त, 1925 को शाहजहाँपुर में एक बैठक का आयोजन किया... बहुत विचार-विमर्श के बाद 8-डाउन सहारनपुर-लखनऊ यात्री गाड़ी में सरकारी राजकोष की लूट का फैसला किया गया था.  9 अगस्त, 1925 को अशफाकुल्ला खान और पंडित राम प्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में आठ अन्य क्रांतिकारियों ने ट्रेन को लूट लिया... वे थे वाराणसी से राजेंद्र लाहिड़ी, बंगाल से सचिन्द्र नाथ बख्शी, उन्नाव से चंद्रशेखर आजाद, कलकत्ता से केशब चक्रवोर्ति, रायबरेली से बनवारी लाल, इटावा से मुकुन्दी लाल, बनारस से मन्मथ नाथ गुप्ता और शाहजहाँपुर से मुरारी लाल थे...

ब्रिटिश सरकार क्रांतिकारियों के साहस पर चकित थी... वाइसराय ने स्कॉटलैंड यार्ड पुलिस को मामले की जांच के लिए तैनात किया... एक महीने में गुप्तचर विभाग ने सुराग एकत्र कर लगभग सभी क्रांतिकारियों की रातोंरात गिरफ्तारी का फैसला किया. 26 सितंबर, 1925 पंडित राम प्रसाद बिस्मिल और शाहजहाँपुर से दूसरों को सुबह पुलिस ने गिरफ्तार किया लेकिन अशफाक लापता थे.. अशफाक बनारस और फिर वहां से बिहार दस महीनों के लिए एक इंजीनियरिंग कंपनी में काम करने के लिए चले गए... वह विदेश जाने और स्वतंत्रता संग्राम में अपनी मदद के लिए लाला हर दयाल से मिलना चाहते थे... कैसे देश के बाहर जाया जाये उसके तरीके खोजने के लिए वह दिल्ली चले गए... दिल्ली में उनके पठान दोस्त ने मदद के बदले में उन्हें धोखा दिया और पुलिस ने अशफाक को गिरफ्तार कर लिया...
तसद्दुक हुसैन तत्कालीन पुलिस अधीक्षक ने बिस्मिल और अशफाक के बीच सांप्रदायिक राजनीति खेलने की कोशिश की... उन्हें सरकारी गवाह बनाने की कोशिश की... उसने अशफाक को हिन्दू धर्म के खिलाफ भड़काने की कोशिश की.. लेकिन अशफाक मज़बूत इरादों वाले सच्चे भारतीय थे और उन्होंने तसद्दुक हुसैन को ये कहकर अचम्भे में डाल दिया, "खान साहिब, मैं पंडित राम प्रसाद बिस्मिल को आपसे ज्यादा जानता हूँ... फिर भी अगर आप सही कर रहे हैं तो 'हिन्दू भारत' ज्यादा अच्छा है उस 'ब्रिटिश भारत' से जिसकी आप नौकर की तरह सेवा कर रहे हैं.. "
अशफाकुल्ला खान को फैजाबाद जेल में हिरासत में भेज दिया गया था... उनके खिलाफ मामला दायर किया गया था. उनके भाई रियासत उल्ला खान ने कृपा शंकर हजेला, एक वरिष्ठ अधिवक्ता को उनके मामले की दलील में एक परामर्शदाता के रूप में नियुक्त किया.. श्री हजेला ने बहुत कोशिश की और अंत तक लड़े, लेकिन वह अशफाक के जीवन को नहीं बचा सके.
जेल में रहते हुए अशफाक रोज पांच बार 'नमाज' पढ़ते थे..
काकोरी साजिश के मामले में पंडित राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाकुल्ला खान, राजेंद्र लाहिड़ी और ठाकुर रोशन सिंह को फांसी की सजा दी गई... जबकि सोलह अन्य को चार साल से कठोर आजीवन कारावास की सजा तक दी गई...
एक प्रत्यक्षदर्शी के अनुसार बुधवार को, फांसी पर लटकाने से चार दिन पहले दो अंग्रेजी अधिकारियों ने अशफाकुल्ला खान की कोठरी में देखा.. वह अपनी नमाज के बीच में थे... उनमें से एक ने चुटकी लेते हुए कहा- "मैं देखना चाहता हूँ  कि इसमे कितनी आस्था बची रहती है जब हम इसे चूहे की तरह लटका देंगे." लेकिन अशफाक हमेशा की तरह अपनी प्रार्थना में मशगूल रहे... और वो दोनों बड़बड़ाते हुए चले गए...

सोमवार, 19 दिसम्बर 1927 अशफाकुल्ला खान फांसी के तख्ते पर आये.. जैसे ही उनकी बेड़ियाँ खोली गईं, उन्होने फांसी की रस्सी को इन शब्दों के साथ चूमा "किसी आदमी की हत्या से मेरे हाथ गंदे नहीं हैं.. मेरे खिलाफ तय किए आरोप नंगे झूठ हैं... अल्लाह मुझे न्याय दे देंगे.."
और फिर उन्होंने उर्दू में 'शहादा' पढ़ा...  
फांसी का फंदा उनके गले के पास आया
और आज़ादी के आंदोलन ने एक चमकता सितारा आकाश में खो दिया...
 
शहीद अश्फाक 'हसरत' की कुछ हसरतें लिख रहा हूँ-

कुछ आरजू नहीं है, है आरजू तो यह
रख दे कोई ज़रा सी खाके वतन कफ़न में..
ए पुख्तकार उल्फत होशियार, डिग ना जाना,
मराज आशकां है इस दार और रसन में...

न कोई इंग्लिश है न कोई जर्मन,
न  कोई रशियन है न कोई तुर्की..
मिटाने वाले हैं अपने हिंदी,
जो आज हमको मिटा रहे हैं...

बुजदिलो को ही सदा मौत से डरते देखा,
गो कि सौ बार उन्हें रोज़ ही मरते देखा..
मौत से वीर को हमने नहीं डरते देखा,
मौत को एक बार जब आना है तो डरना क्या है,
हम सदा खेल ही समझा किये, मरना क्या है..
वतन हमेशा रहे शादकाम और आज़ाद,
हमारा क्या है, अगर हम रहे, रहे न रहे...

मौत और ज़िन्दगी है दुनिया का सब तमाशा,
फरमान कृष्ण का था, अर्जुन को बीच रन में..

"जाऊँगा खाली हाथ मगर ये दर्द साथ ही जायेगा,
जाने किस दिन हिन्दोस्तान आज़ाद वतन कहलायेगा?
बिस्मिल हिन्दू हैं कहते हैं "फिर आऊँगा,फिर आऊँगा,
फिर आकर के ऐ भारत माँ तुझको आज़ाद कराऊँगा".

जी करता है मैं भी कह दूँ पर मजहब से बंध जाता हूँ,
मैं मुसलमान हूँ पुनर्जन्म की बात नहीं कर पाता हूँ..
हाँ खुदा अगर मिल गया कहीं अपनी झोली फैला दूँगा,
और जन्नत के बदले उससे इक पुनर्जन्म ही माँगूंगा.."


"किये थे काम हमने भी जो कुछ भी हमसे बन पाये,
ये बातें तब की हैं आज़ाद थे और था शबाब अपना..
मगर अब तो जो कुछ भी हैं उम्मीदें बस वो तुमसे हैं,
जबाँ तुम हो लबे-बाम आ चुका है आफताब अपना."
 
वन्दे मातरम्...
जय हिंद... जय भारत....
 

Sunday 2 October 2011

भारत के सबसे ईमानदार और कर्मठ प्रधानमंत्री श्री लाल बहादुर शास्त्री के जन्म दिवस की शुभकामनाएं...


भारत के सबसे ईमानदार और कर्मठ प्रधानमंत्री श्री लाल बहादुर शास्त्री के जन्म दिवस की शुभकामनाएं...

 
जिन्हें सबसे ज्यादा याद करना चाहिए उन्हें ये देश भूल जाता है
और 'थोंपे गए देश के कथित बाप' का गुणगान करता है...
शास्त्री जी की ईमानदारी की मिसाल भारतीय राजनीति में कहीं नही है.. जब उनका देहांत हुआ तो वो अपने सर पर कर्जा छोड़ कर गए थे, कार ऋण.. उस कार का कर्जा जो उन्होंने खरीदी थी...
वो अपनी सच्चाई, आदर्शों और सिद्धांतों के लिए जीए और देश के लिए मरे...
माँ भारती के इस सपूत को मैं शत शत नमन करता हूँ...

लालबहादुर शास्त्री स्वतंत्र भारत के दूसरे प्रधानमंत्री थे... शारीरिक कद में छोटे वह अपार साहस और इच्छाशक्ति के इंसान थे.. सरलता, सादगी और ईमानदारी के साथ अपने जीवन का नेतृत्व किया और सभी देशवासियों के लिए एक महान प्रेरणा स्रोत बने...

उत्तर प्रदेश में वाराणसी से सात मील की दूरी पर स्थित मुगलसराय में 2 अक्तूबर 1904 को लाल बहादुर का जन्म हुआ.. उनके पिता शारदा प्रसाद श्रीवास्तव एक अध्यापक थे जो बाद में इलाहबाद में राजस्व विभाग में क्लर्क बने.. लाल बहादुर जब तीन माह के थे तो गंगा के घाट पे अपनी माँ के हाथों से फिसलकर एक ग्वाले की टोकरी में जा गिरे.. ग्वाला जिसके कोई संतान नहीं थी उन्हें भगवान् का उपहार समझकर अपने घर ले गया.. लाल बहादुर के माता-पिता ने पुलिस में शिकायत दर्ज करवाई और पुलिस ने उन्हें ढूंढकर उनके माता-पिता को सौंप दिया... जब वह डेढ़ साल के थे तो उनके पिता का देहांत हो गया..

लाल बहादुर शास्त्री के बचपन की एक बहुत प्रसिद्ध घटना है-  लाल बहादुर अपने दोस्तों के साथ स्कूल से घर लौट रहे थे, रास्ते में एक बाग था.. लाल बहादुर पेड़  के नीचे खड़े थे और उनके दोस्त पेड़ पर आम तोड़ने के लिए चढ़ गए... इस बीच माली आया और लाल बहादुर को पकड़ लिया... उसने लाल बहादुर को डांटा और पिटाई करनी शुरू कर दी.. माली से डर कर लाल बहादुर ने कहा कि वह अनाथ है.. लालबहादुर पर दया करते हुए, माली ने कहा, "क्योंकि तुम एक अनाथ हो तो यह तुम्हारे लिए सबसे अधिक जरूरी है कि तुम अच्छा व्यवहार करना सीखो." इन शब्दों ने लाल बहादुर शास्त्री पर एक गहरी छाप छोड़ी और उन्होंने भविष्य में बेहतर व्यवहार करने की कसम खाई..
जब वह दस साल के थे तो छठी कक्षा उत्तीर्ण की

और फिर आगे की पढाई के लिए वाराणसी गए..
 

एक बार लाल बहादुर अपने दोस्तों के साथ गंगा नदी के पार मेला देखने गए.. शाम को वापस लौटते समय जब सभी दोस्त नदी किनारे पहुंचे तो उन्होंने नाव के किराये के लिए जेब में हाथ डाला.. जेब में एक पाई भी नहीं थी.. वह वहीँ रुक गए और अपने दोस्तों से कहा कि वह और थोड़ी देर मेला देखेंगे.. वह नहीं चाहते थे कि उन्हें अपने दोस्तों से नाव का किराया लेना पड़े, उनका स्वाभिमान उन्हें इसकी अनुमति नहीं दे रहा था..
उनके दोस्त नाव में बैठकर नदी पार चले गए..  जब उनकी नाव आँखों से ओझल हो गई तब लाल बहादुर ने अपने कपड़े उतारकर उन्हें सर पर लपेट लिया और नदी में उतर गए.. उस समय नदी उफान पर थी, बड़े-से-बड़ा तैराक भी आधे मील चौड़े पाट को पार करने की हिम्मत नहीं कर सकता था.. पास खड़े मल्लाहों ने भी उनको रोकने की कोशिश की मगर उन्होंने किसी की न सुनी और किसी भी खतरे की परवाह न करते हुए वह नदी में तैरने लगे... पानी का बहाव तेज़ था और नदी भी काफी गहरी थी.. रास्ते में एक नाव वाले ने उन्हें अपनी नाव में सवार होने के लिए कहा लेकिन वह  रुके नहीं, तैरते गए.. कुछ देर बाद वह सकुशल दूसरी ओर पहुँच गए...
 

हालांकि उनके माता पिता श्री शारदा प्रसाद और श्रीमती रामदुलारी देवी 'श्रीवास्तव' थे, मगर शास्त्री जी ने अपने प्रारंभिक वर्षों में अपनी जाति पहचान को छोड़ दिया.
1921 में, बाल गंगाधर तिलक और गांधी से प्रेरित होकर भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल होने के लिए उन्होंने कुछ समय के लिए पढाई छोड़ दी.. असहयोग आन्दोलन में लाल बहादुर गिरफ्तार हुए लेकिन कम उम्र होने के कारण छोड़ दिए गये...
बाद में वह काशी विद्यापीठ में शामिल हो गए और दर्शन शास्त्र में डिग्री प्राप्त करके 'शास्त्री' की उपाधि प्राप्त की...
काशी विद्या पीठ छोड़ने के बाद लाल बहादुर शास्त्री, लाला लाजपत राय द्वारा 1921 में स्थापित 'The Servants Of The People Society' में शामिल हो गए. सोसायटी का उद्देश्य था कि देश की सेवा में अपने जीवन को समर्पित करने के लिए तैयार युवकों को प्रशिक्षित करना..
1927 में लाल बहादुर शास्त्री ने ललिता देवी से शादी कर ली...
विवाह समारोह बहुत सरल था और शास्त्री जी ने दहेज में केवल एक चरखा और कुछ गज खादी ली थी...
1930 में सविनय अवज्ञा आंदोलन में लाल बहादुर शास्त्री शामिल हो गए और लोगों को सरकार को भू - राजस्व और करों का भुगतान नहीं करने के लिए प्रोत्साहित किया... उन्होंने गिरफ्तार किया गया और ढाई साल के लिए जेल में डाल दिया.. जेल में शास्त्री जी का पश्चिमी दार्शनिकों, क्रांतिकारियों और समाज सुधारकों से परिचय हुआ...
लाल बहादुर शास्त्री में आत्म सम्मान बहुत था.. जब वह जेल में थे तो उनकी बेटियों में से एक गंभीर रूप से बीमार हो गयी.. जेल अधिकारियों ने उनकी थोड़े समय की रिहाई के लिए शर्त रखी कि वह इस अवधि के दौरान आजादी के आंदोलन में हिस्सा नहीं लेंगे, ये लिखित रूप में सहमती होनी चाहिए.. लालबहादुर भी जेल से अपनी अस्थायी रिहाई के दौरान स्वतंत्रता आंदोलन में भाग नहीं लेना चाहते थे.. लेकिन उन्होंने कहा कि वो यह लिखित में नहीं देंगे... उन्होंने सोचा कि लिखित सहमती देना उनके आत्म सम्मान के खिलाफ था..

स्वतंत्रता की मांग के लिए कांग्रेस ने 1940 में "व्यक्तिगत सत्याग्रह" शुरू किया..  लाल बहादुर शास्त्री व्यक्तिगत सत्याग्रह के दौरान गिरफ्तार किया गए थे और एक वर्ष के बाद रिहा हुए... 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन में शास्त्री जी ने सक्रिय भाग लिया.. वह भूमिगत हो गये थे लेकिन बाद में गिरफ्तार किये गए और अन्य प्रमुख नेताओं के साथ 1945 में रिहा हुए थे... उन्होंने अपनी कड़ी मेहनत के द्वारा 1946 में प्रांतीय चुनावों के दौरान पंडित गोविंद वल्लभ पंत की विशेष प्रशंसा अर्जित की.. इस समय लाल बहादुर की प्रशासनिक क्षमता और संगठन कौशल सामने आया था... जब गोविंद वल्लभ पंत उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बन गए तो उन्होंने अपने संसदीय सचिव के रूप में लाल बहादुर शास्त्री को नियुक्त किया... 1947 में लाल बहादुर शास्त्री, पंत मंत्रिमंडल में पुलिस और परिवहन मंत्री बने..
लाल बहादुर शास्त्री कांग्रेस पार्टी के महासचिव थे, भारत गणराज्य बनने के बाद जब पहले आम चुनाव आयोजित किए गए थे.. कांग्रेस पार्टी एक विशाल बहुमत के साथ सत्ता में आई... 1952 में जवाहर लाल नेहरू केन्द्रीय मंत्रिमंडल में रेलवे और परिवहन मंत्री के रूप में लाल बहादुर शास्त्री को नियुक्त किया... तीसरी श्रेणी के डिब्बों में यात्रियों को अधिक सुविधाएं प्रदान करने में लाल बहादुर शास्त्री के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता.. उन्होंने रेलवे में पहली और तीसरे वर्ग के बीच विशाल असमानता को कम कर दिया...


एक रेल दुर्घटना की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए लाल बहादुर शास्त्री ने 1956 में रेल मंत्री से इस्तीफा दे दिया... जवाहर लाल नेहरू ने शास्त्री जी को मनाने की कोशिश की, लेकिन लाल बहादुर शास्त्री ने अपने स्टैंड से हिलने से इनकार कर दिया.. और अपने इस निर्णय से लाल बहादुर शास्त्री जी ने सार्वजनिक जीवन में नैतिकता के नए मानक स्थापित किये..
अगले आम चुनाव में जब कांग्रेस सत्ता में लौट आई  तो लाल बहादुर शास्त्री परिवहन और संचार मंत्री और बाद में वाणिज्य और उद्योग मंत्री बने... गोविंद वल्लभ पंत की मौत के बाद 1961 में वह गृह मंत्री  बन गए... 1962 के भारत-चीन युद्ध में शास्त्री जी ने देश की आंतरिक सुरक्षा को बनाए रखने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई...
1964 में जवाहरलाल नेहरू की मृत्यु के बाद लाल बहादुर शास्त्री को सर्वसम्मति से भारत के प्रधानमंत्री के रूप में चुना गया... यह एक कठिन समय था और देश को भारी चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा था... देश में भोजन की कमी थी और सुरक्षा के मोर्चे पर पाकिस्तान समस्याएं पैदा कर रहा था... 1965 में, पाकिस्तान ने भारत पर हमला किया... सौम्य व्यवहार लालबहादुर शास्त्री ने सैनिकों और किसानों के उत्साह के लिए "जय जवान, जय किसान" का नारा दिया... पाकिस्तान युद्ध में हार गया और शास्त्री जी के नेतृत्व की सारी दुनिया में प्रशंसा हुई...


जनवरी 1966 में रूस के ताशकंद में, भारत और पाकिस्तान के बीच शांति के लिए रूस की मध्यस्थता में लाल बहादुर शास्त्री और अयूब खान के बीच एक बैठक हुई.. रूसी मध्यस्थता से भारत और पाकिस्तान ने संयुक्त घोषणा पर हस्ताक्षर किए... संधि के तहत भारत युद्ध के दौरान जीते हुए सभी प्रदेशों को पाकिस्तान को लौटाने पर सहमत हुआ..

10 जनवरी, 1966 को संयुक्त घोषणापत्र पर हस्ताक्षर किए गए और उसी रात को लाल बहादुर शास्त्री की दिल का दौरा पड़ने से मृत्यु हो गई.??

1966 में शास्त्री जी को 'भारत रत्न' दिया गया...

लाल बहादुर शास्त्री की मौत का रहस्य-


आधिकारिक तौर पर शास्त्री जी की मृत्यु दिल का दौरा पड़ने से हुई जबकि उनकी पत्नी श्रीमती ललिता शास्त्री ने यह आरोप लगाया कि उनकी मौत जहर से हुई है... कई लोगों का मानना है कि उनका शरीर नीला पड़ गया था जो विषाक्तता का प्रमाण है... वास्तव में विषाक्तता के संदेह में एक रसियन खानसामा गिरफ्तार भी किया गया था लेकिन बाद में उसे छोड़ दिया गया...
विदेश मंत्रालय ने पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री की मौत को लेकर मास्को स्थित भारतीय दूतावास के साथ पिछले 47 साल के दौरान हुए पत्र व्यवहार का यह कहते हुए खुलासा करने से इनकार कर दिया है कि इससे देश की संप्रभुता और अखंडता तथा अंतरराष्ट्रीय संबंधों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा।
पहले विदेश मंत्रालय ने कहा था कि उसके पास ताशकंद में 1966 को हुई शास्त्री की मत्यु के संबंध में केवल एक मेडिकल रिपोर्ट को छोड़ कर कोई दस्तावेज नहीं है। यह मेडिकल रिपोर्ट उस डॉक्टर की है जिसने उनकी जांच की थी। इसके बाद विदेश मंत्रालय ने भारत और पूर्ववर्ती सोवियत संघ के बीच शास्त्री की मौत को लेकर हुए पत्र व्यवहार के बारे में चुप्पी साध ली थी।
2009 में एक पारदर्शिता संबंधी वेबसाइट डब्ल्यू डब्ल्यू डब्ल्यू डॉट एंड द सीक्रेसी डॉट कॉम के संचालक और CIA's Eye On South Asia के लेखक अनुज धर ने सूचना का अधिकार के अंतर्गत दिए गए अपने आवेदन में प्रधानमन्त्री कार्यालय से शास्त्री जी की मौत के बाद विदेश मंत्रालय और मास्को स्थित भारतीय दूतावास तथा दोनों देशों के विदेश मंत्रालयों के बीच हुए पत्र व्यवहार का ब्यौरा मांगा था.. उन्होंने यह भी कहा था कि अगर कोई पत्र व्यवहार नहीं हुआ है तो इसकी भी जानकारी दी जाए..
धर ने दिवंगत प्रधानमंत्री की जांच करने वाले डॉक्टर आर एन चुग की मेडिकल रिपोर्ट भी मांगी थी जो शास्त्री जी के पोते और भाजपा प्रवक्ता सिद्धार्थ नाथ सिंह के अनुसार, सार्वजनिक संपत्ति है...
मंत्रालय ने यह नहीं कहा कि कोई पत्र व्यवहार हुआ या नहीं.. उसने जवाब दिया कि जो सूचनाएं मांगी गई हैं उन्हें सूचना का अधिकार अधिनियम की धारा 8 (एक) (ए) के तहत जाहिर नहीं किया जा सकता... इस धारा के तहत ऐसी सूचना के खुलासे पर रोक है जिससे देश की संप्रभुता और अखंडता पर तथा विदेश से संबंधों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता हो..
मंत्रालय ने इस धारा के तहत छूट मांगने का कारण नहीं बताया जबकि केंद्रीय सूचना आयोग के आदेशों के अनुसार कारण बताना आवश्यक है.. वर्ष 1965 में हुए भारत पाक युद्ध के बाद शास्त्री जी जनवरी 1966 में पूर्ववर्ती सोवियत संघ में पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति अयूब खान के साथ एक बैठक के लिए ताशकंद गए थे। संयुक्त घोषणापत्र पर हस्ताक्षर करने के कुछ ही घंटे के बाद शास्त्री जी की रहस्यमय परिस्थितियों में मत्यु हो गई थी।
सिंह ने बताया कि डाक्टर की रिपोर्ट सार्वजनिक की जा चुकी है.. मेरे पास इसकी एक प्रति है.. इसमें डाक्टर ने अंत में लिखा है -हो सकता है -इससे ऐसा लगता है कि उनकी मौत का कारण जैसे कुछ शब्दों का इस्तेमाल किया गया है जिसका मतलब दिल का दौरा हो सकता है। प्रधानमंत्री की मौत को आप इस तरह नहीं बता सकते-इसके लिए आपको 100 फीसदी निश्चित होना होगा...
धर का कहना है कि विदेश में प्रधानमंत्री की मौत से खासी हलचल हुई होगी और मास्को स्थित भारतीय दूतावास में भी गतिविधियां कम नहीं हुई होंगी.. उन्होंने कहा इस घटना को लेकर कई फोन और टेलीग्राम आए होंगे लेकिन विदेश मंत्रालय इनमें से किसी का भी खुलासा करने को तैयार नहीं है।
धर के अनुसार, पहले उन्होंने कहा कि मास्को स्थित भारतीय दूतावास में डा चुग की रिपोर्ट के अलावा कोई दस्तावेज नहीं है..
अब वे कहते हैं कि वे फोन कॉल्स और टेलीग्राम का ब्यौरा जाहिर नहीं कर सकते... 
इसका मतलब यह है कि ये रिकॉर्डस हैं लेकिन पहले कह दिया गया कि रिकार्डस नहीं हैं..

माँ भारती के लिए जीने वाले हिंसा दुश्मनों से और अहिंसा दोस्तो से करने वाले,
देश के गद्दारो को साथ ले गए थे ताशकंद, पीठ पे छुरा दोस्तो से खाने वाले...
कद छोटा था पर सीने मे दिल बड़ा था, पाकिस्तानी कुत्तो के कान खड़े करने वाले,
न भूत मे, न वर्तमान मे और न ही भविष्य मे फिर ऐसे बहादुर शहीद आने वाले...

पूरे देश को दिलाकर व्रत सोमवार का, पाकिस्तान को नानी याद दिलाने वाले,
माँ भारती के लिए जीने वाले हिंसा दुश्मनों और अहिंसा दोस्तो से करने वाले..
आंखो मे देश की स्वदेशी का ख्वाब जगाकर, अमेरिका को मुह की खिलाने वाले,
सभी पढो माँ ललीता शास्त्री की "मेरा पति मेरा देवता" पुस्तक तो,
पता चल जाएगा कौन हत्यारे इस शहीद बहादुर को धोखे से मारने वाले...
भारत माता के 'गूदड़ी के लाल' लाल बहादुर शास्त्री को सादर प्रणाम..














वन्दे मातरम्...
जय हिंद... जय भारत...

Tuesday 27 September 2011

'शहीद-ए-आज़म' भगत सिंह के 104 वें जन्मदिवस की शुभकामनाएं...

क्रांति के महानायक और 'इन्कलाब जिंदाबाद' के प्रणेता 'शहीद-ए-आज़म' भगत सिंह के 104 वें जन्मदिवस पर उनके चरणों में शत शत नमन...
इन्कलाब जिन्दाबाद जैसे नारे देने वाले महान क्रान्तिकारी 'शहीद-ए-आज़म' भगत सिंह  का जन्म सरदार किशन सिंह संधू और सरदारनी विद्यावती कौर के घर 28 सितम्बर 1907 को वर्तमान पाकिस्तान के पंजाब में लायलपुर जिले के एक गांव में हुआ था.. लायलपुर अब फैसलाबाद के नाम से प्रसिद्ध है.. उनका पैतृक गांव खटकर कलां पंजाब के नवांशहर जिले में बंगा कस्बे के पास है जिसे हाल ही में 'शहीद भगत सिंह नगर' का नाम दिया गया है..
उन्हें अपनी दादी से "भागां वाला" उपनाम मिला था, जिसका अर्थ "भाग्यशाली" होता है..
भगत सिंह को देशभक्ति विरासत में मिली थी, उनके दादा, अर्जुन सिंह ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया था और महाराजा रणजीत सिंह की सेना में सेवा की थी, वो स्वामी दयानंद सरस्वती के हिन्दू सुधारवादी आंदोलन, आर्य समाज के अनुयायी थे... उनके चाचा अजित सिंह, स्वर्ण सिंह और उनके पिता ग़दर पार्टी के सदस्यों करतार सिंह सराभा, ग्रेवाल और हरदयाल के नेतृत्व में थे. अजित सिंह अपने खिलाफ लंबित मामलों की वजह से फारस भागने के लिए मजबूर हुए थे जबकि स्वर्ण सिंह का अपने घर में लाहौर की बोर्स्तले जेल से रिहा  होने के बाद 1910 में देहांत हो गया था... इन सबका प्रभाव भगत सिंह के व्यक्तित्व पर पड़ा था...
12 साल के भगत पर जलियाँवाला बाग हत्याकाण्ड का इतना गहरा असर पड़ा कि वो वहाँ की मिट्टी ले आए थे और सदैव अपने साथ स्मृति चिन्ह के रुप मे रखते थे...
भगत सिंह अन्य सिख छात्रों की तरह लाहौर के खालसा हाई स्कूल में नहीं थे, क्योंकि उनके दादा जी को ब्रिटिश अधिकारियों के लिए स्कूल के संचालकों की स्वामिभक्ति मंजूर नहीं थी.. इसके बजाय, उनके पिता ने दयानंद एंग्लो वैदिक हाई स्कूल में भगत सिंह का दाखिला कराया
आर्य समाजी स्कूल में 13 साल की उम्र में, भगत सिंह ने महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन का पालन शुरू कर दिया.
इस आन्दोलन में भगत सिंह ने खुले तौर पर ब्रिटिश सरकार को ललकारा था... लेकिन चौरा-चौरी की हिंसक घटना के बाद गांधी के आन्दोलन वापस लेने से भगत सिंह नाखुश थे...उसके बाद वह युवा क्रांतिकारी आंदोलन में शामिल हो गए और अंग्रेजों के खिलाफ एक हिंसक आंदोलन की वकालत शुरू की..
1923 में भगत ने मशहूर पंजाब हिंदी साहित्य सम्मेलन द्वारा आयोजित एक निबंध प्रतियोगिता जीत ली, जिससे पंजाब हिंदी साहित्य सम्मेलन के सदस्यों सहित महासचिव प्रोफेसर भीम सेन विद्यालंकार का ध्यान आकर्षित किया..
इस उम्र में उन्होंने प्रसिद्ध पंजाबी साहित्य को उद्धृत किया और पंजाब की समस्याओं पर विचार - विमर्श किया.. उन्होंने कविता और साहित्य जो पंजाबी लेखकों द्वारा लिखा गया था पढ़ा और उनके पसंदीदा कवि सियालकोट से अल्लामा इकबाल थे...
अपनी किशोरावस्था के वर्षों में, भगत सिंह ने लाहौर में नेशनल कॉलेज में अध्ययन शुरू कर दिया है लेकिन जल्दी शादी से बचने के लिए घर से दूर कानपुर भाग आये और गणेश शंकर विद्यार्थी के द्वारा संगठन 'नौजवान भारत सभा' के सदस्य बन गये.. नौजवान भारत सभा में भगत सिंह और उनके साथी क्रांतिकारियों की युवाओं के बीच लोकप्रियता में वृद्धि हुई... इतिहास के प्रोफेसर विद्यालंकार द्वारा परिचय के माध्यम से हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन में शामिल हो गए जो राम प्रसाद बिस्मिल, चंद्रशेखर आजाद और अशफाकुल्ला खान जैसे प्रमुख नेताओं का संगठन था.. यह माना जाता है कि वह कानपुर चले गए थे काकोरी ट्रेन डकैती के कैदियों को आज़ाद कराने के किये लेकिन अज्ञात कारणों से लाहौर वापस आये... 1926 अक्टूबर में दशहरा के दिन लाहौर में एक बम विस्फोट हुआ था, और भगत सिंह को उनकी कथित संलिप्तता के लिए 29 मई 1927 में गिरफ्तार किया गया और 60, 000 रूपये  की जमानत पर उन्हें गिरफ्तारी के पांच सप्ताह के बाद छोड़ा गया था
उन्होंने अमृतसर से प्रकाशित उर्दू और पंजाबी समाचार पत्रों में लिखा और संपादित किया..
सितम्बर 1928 में कीर्ति किसान पार्टी के बैनर तले भारत भर से विभिन्न क्रांतिकारियों की बैठक दिल्ली में हुई जिसके सचिव भगत सिंह थे. उसके बाद की क्रांतिकारी गतिविधियों से भगत सिंह इस संगठन के नेता के रूप में उभरे...
उन्होंने आज़ाद के साथ 'हिंदुस्तान समाजवादी प्रजातांत्रिक संघ' की स्थापना की जिसका उद्देश्य सशस्त्र क्रांति के द्वारा देश में गणतंत्र की स्थापना करना था.. फरवरी 1928 में साइमन कमीशन का अहिंसक विरोध करने वाले लाला लाजपत राय की लाठीचार्ज में मौत का बदला लेने के लिए भगत सिंह ने इसके लिए ज़िम्मेदार ब्रिटिश अधिकारी उपमहानिरीक्षक स्कॉट की हत्या के लिए योजना बनाई लेकिन गलती से सहायक अधीक्षक सांडर्स मारा गया.. जिससे भगत सिंह को लाहौर से मौत की सजा से बचके भागना पड़ा...
ब्रिटिश सरकार की दमनकारी नीतियों के खिलाफ और भारतीय रक्षा अधिनियम के तहत पुलिस को दी गई शक्तियों के विरुद्ध सरकार का ध्यान आकर्षित करने के लिए 8 अप्रैल, 1929 को भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने सेंट्रल असेंबली हॉल में बम फेंक दिया और बम के धमाके का मकसद बहरी सरकार को जगाना था.. दोनों ने वहीँ पर अपनी गिरफ्तारी दी.. वो चाहते तो भाग सकते थे..
भगत सिंह अपने साथी राजनीतिक कैदियों की जेल अधिकारियों द्वारा अमानवीय व्यवहार के विरोध में भूख हड़ताल पर चले गये...

7 अक्टूबर, 1930 को भगत सिंह, सुख देव और राज गुरू को एक विशेष अदालत द्वारा मौत की सजा दी गई.. भारी लोक दबाव और भारत के कुछ राजनीतिक नेताओं द्वारा कई अपीलों के बावजूद, भगत सिंह और उनके साथियों को 23 मार्च, 1931 के शुरुआती घंटों में फांसी पर लटका दिया गया...

वीर भगत सिंह के कुछ पसंदीदा शेर बता रहा हूँ आपको--
जिंदगी  तो  अपने  दम  पर  ही  जी  जाती  है...
दूसरों के कंधों पर तो सिर्फ जनाजे उठाए जाते हैं...
 
जबसे सुना है मरने का नाम ज़िन्दगी है...
सर पे कफ़न लपेटे कातिल को ढूंढते हैं...
 
भगत सिह ने लिखा था कि एक दिन ऐसा आएगा जब उनके विचारो को हमारे देश के नौजवान मार्गदर्शक के रूप मे लेंगे... भगत सिह के शब्दो मे क्रांति का अर्थ है, क्रांति जनता द्वारा जनता के हित मे और दूसरे शब्दो मे 98 प्रतिशत जनता के लिए स्वराज जनता द्वारा जनता के लिए है . भगत सिह जी का यह कहना था कि अपने उद्देश्य पूर्ति के लिए रूसी नवयुवको क़ी तरह हमारे देश के नौजवानो को अपना बहुमूल्य जीवन गाँवो मे बिताना पड़ेगा और लोगो को यह समझाना पड़ेगा कि क्रांति क्या होती है और उन्हें यह समझना पड़ेगा कि क्रांति का मतलब मालिको क़ी तब्दीली नही होगी और उसका अर्थ होगा एक नई व्यवस्था का जन्म एक नई राजसत्ता का जन्म होगा.  यह एक दिन एक साल का काम नही है.  कई दशको का बलिदान ही जनता को इस महान कार्य के लिए तत्पर कर सकता है और इस कार्य को केवल क्रांतिकारी युवक ही पूरा कर सकते है..
क्रांतिकारी का मतलब बम और पिस्तौल से नही है वरन अपने देश को पराधीनता और गुलामी की जंजीरों से
मुक्त और आज़ाद कराना है... भगत सिह क्रांतिकारी क़ी तरह अपने देश को आज़ाद कराने क़ी भावना दिल मे लिए स्वतंत्रता आंदोलन मे शामिल हुए थे... भगत सिह को इन्क़लाबी शिक्षा घर के दहलीज पर प्राप्त हुई थी. भगत सिह के परिवारिक संस्कार पूरी तरह से अंग्रेज़ो के खिलाफ़ थे.. हर हिंदुस्तानी मे यह भावना थी कि किसी तरह अंगरज़ो को हिंदुस्तान से बाहर खदेड़ दिया जाए... जब भगत सिह को फाँसी क़ी सज़ा सुनाई गई थी उन्होंने अपने देश क़ी आज़ादी के लिए हँसते हँसते फाँसी पर झूल जाना पसंद किया और उन्होने अपने देश के लिए अपने प्राणों क़ी क़ुर्बानी दे दी . सरदार भगत सिह ने छोटी उम्र मे अपने प्राणों क़ी क़ुरबानी देकर देश के नवयुवको के सामने मिसाल क़ायम क़ी है, जिससे देश के नवयुवको को प्रेरणा ग्रहण करनी चाहिए..

भारत के महान क्रांतिकारी, महान वीर शहीद भगत सिंह को शत-शत नमन...

वन्दे मातरम्...
जय हिंद... जय भारत...