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Saturday 22 October 2011

अमर शहीद अशफाक उल्ला खान के 111 वें जन्मदिवस की शुभ-कामनाएं-

क्रांतिकारी शहीद अशफाक उल्ला खान के 111 वें जन्मदिवस पर उनको शत-शत नमन...
 
अशफाकुल्ला खान ने राम प्रसाद बिस्मिल के साथ अपना जीवन माँ भारती को समर्पित कर दिया था... वो भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के महान यौद्धा थे... वो दोनों अच्छे मित्र और उर्दू शायर थे... राम प्रसाद का उपनाम (तखल्लुस) 'बिस्मिल' था, वहीँ अशफाक 'वारसी' और बाद में 'हसरत' के उपनाम से लिखते थे..भारतीय आज़ादी में इन दोनों का त्याग और योगदान युवा पीढ़ियों के लिए धार्मिक एकता और सांप्रदायिक सौहार्द्र की अनुपम मिसाल है... दोनों को एक ही तारीख, दिन और समय पर फांसी दी गई.. केवल जेल अलग अलग (फैजाबाद और गोरखपुर) थी...

अशफाक का जन्म 22 अक्तूबर 1900 को उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर में हुआ.. उनके पिता पठान शफिकुल्लाह खान और माँ मज़हूर-उन-निसा थे..अशफाक उनके चार बेटों में सबसे छोटे थे... उनके पिता पुलिस विभाग में थे...
अशफाक के बड़े भाई रियासत उल्लाह खान राम प्रसाद बिस्मिल के सहपाठी थे.. जब बिस्मिल मैनपुरी षड़यन्त्र के बाद फरार घोषित हुए  तो रियासत उनके बहादुरी और उर्दू शायरी के बारे में छोटे भाई अशफाक को बताते थे... तब से अशफाक अपने काव्यात्मक दृष्टिकोण के कारण बिस्मिल से मिलने के लिए बहुत उत्सुक थे... 1920 में बिस्मिल शाहजहाँपुर आये तो अशफाक ने बहुत बार कोशिश की उनसे संपर्क की लेकिन बिस्मिल ने ध्यान नहीं दिया..

1922 में जब असहयोग आंदोलन शुरू हुआ और शाहजहाँपुर में आंदोलन के बारे में जनता को बताने के लिए बिस्मिल आये... अशफाक उल्लाह ने एक सार्वजनिक बैठक में उनसे मुलाकात की और खुद को दोस्त के एक छोटे भाई के रूप में पेश किया. उन्होंने यह भी बिस्मिल से कहा कि वह 'वारसी' और 'हसरत' के कलम नाम से लिखते हैं... बिस्मिल ने उनकी शायरी की कुछ बात सुनी और तब से वे अच्छे दोस्त बन गए.

पंडित राम प्रसाद बिस्मिल आर्य समाज के एक सक्रिय सदस्य थे... हालांकि उन दोनो मे किसी भी धार्मिक समुदाय के खिलाफ कोई पूर्वाग्रह मन में कभी नहीं था.. इसके पीछे एक ही कारण है कि दोनों का उद्देश्य भारत की आज़ादी था…
1922 में गाँधीजी द्वारा असहयोग आन्दोलन वापस लेने से अशफाक भी उदास थे..
उन्होंने महसूस किया कि भारत जल्द से जल्द आज़ाद हो जाना चाहिए और इसलिए क्रांतिकारियों में शामिल होने का फैसला किया.. क्रांतिकारियों को लगा कि अहिंसा के नरम शब्दों से भारत अपनी आजादी नहीं पा सकता है, इसलिए वे बम, रिवाल्वर और अन्य हथियारों का उपयोग करके भारत में रहने वाले अंग्रेजों के दिलों में डर पैदा करना चाहते थे. हालांकि ब्रिटिश साम्राज्य बड़ा और मजबूत था, लेकिन कुछ अंग्रेज ही देश को चला रहे थे, गांधी और दूसरे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नेताओं द्वारा अपनाई गई कायरता और गैर हिंसक नीति के कारण... 
कांग्रेस के तथाकथित नेताओं द्वारा गैर सहयोग आंदोलन की वापसी से क्रांतिकारी देश भर में बिखरे हुए थे और नए क्रांतिकारी आंदोलन को शुरू करने के लिए पैसे की आवश्यकता थी... एक दिन शाहजहांपुर से लखनऊ की यात्रा में पंडित राम प्रसाद बिस्मिल ने नोटिस किया कि हर स्टेशन पर स्टेशन मास्टर एक रुपयों का बैग गार्ड को देता है जो गार्ड के केबिन में एक तिजोरी में रखे जाते हैं और ये सारा पैसा लखनऊ जंक्शन के स्टेशन अधीक्षक को सौंप दिया गया था. बिस्मिल ने इन सरकारी पैसों को लूटकर उसी सरकार के खिलाफ उपयोग करने का फैसला किया जो लगातार 300 से अधिक वर्षों से भारत को लूट रही थी. बस यही 'काकोरी ट्रेन डकैती' की शुरुआत थी...

अपने आंदोलन को बढ़ावा देने और हथियार और गोला बारूद को खरीदने के लिए क्रांतिकारियों ने 8 अगस्त, 1925 को शाहजहाँपुर में एक बैठक का आयोजन किया... बहुत विचार-विमर्श के बाद 8-डाउन सहारनपुर-लखनऊ यात्री गाड़ी में सरकारी राजकोष की लूट का फैसला किया गया था.  9 अगस्त, 1925 को अशफाकुल्ला खान और पंडित राम प्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में आठ अन्य क्रांतिकारियों ने ट्रेन को लूट लिया... वे थे वाराणसी से राजेंद्र लाहिड़ी, बंगाल से सचिन्द्र नाथ बख्शी, उन्नाव से चंद्रशेखर आजाद, कलकत्ता से केशब चक्रवोर्ति, रायबरेली से बनवारी लाल, इटावा से मुकुन्दी लाल, बनारस से मन्मथ नाथ गुप्ता और शाहजहाँपुर से मुरारी लाल थे...

ब्रिटिश सरकार क्रांतिकारियों के साहस पर चकित थी... वाइसराय ने स्कॉटलैंड यार्ड पुलिस को मामले की जांच के लिए तैनात किया... एक महीने में गुप्तचर विभाग ने सुराग एकत्र कर लगभग सभी क्रांतिकारियों की रातोंरात गिरफ्तारी का फैसला किया. 26 सितंबर, 1925 पंडित राम प्रसाद बिस्मिल और शाहजहाँपुर से दूसरों को सुबह पुलिस ने गिरफ्तार किया लेकिन अशफाक लापता थे.. अशफाक बनारस और फिर वहां से बिहार दस महीनों के लिए एक इंजीनियरिंग कंपनी में काम करने के लिए चले गए... वह विदेश जाने और स्वतंत्रता संग्राम में अपनी मदद के लिए लाला हर दयाल से मिलना चाहते थे... कैसे देश के बाहर जाया जाये उसके तरीके खोजने के लिए वह दिल्ली चले गए... दिल्ली में उनके पठान दोस्त ने मदद के बदले में उन्हें धोखा दिया और पुलिस ने अशफाक को गिरफ्तार कर लिया...
तसद्दुक हुसैन तत्कालीन पुलिस अधीक्षक ने बिस्मिल और अशफाक के बीच सांप्रदायिक राजनीति खेलने की कोशिश की... उन्हें सरकारी गवाह बनाने की कोशिश की... उसने अशफाक को हिन्दू धर्म के खिलाफ भड़काने की कोशिश की.. लेकिन अशफाक मज़बूत इरादों वाले सच्चे भारतीय थे और उन्होंने तसद्दुक हुसैन को ये कहकर अचम्भे में डाल दिया, "खान साहिब, मैं पंडित राम प्रसाद बिस्मिल को आपसे ज्यादा जानता हूँ... फिर भी अगर आप सही कर रहे हैं तो 'हिन्दू भारत' ज्यादा अच्छा है उस 'ब्रिटिश भारत' से जिसकी आप नौकर की तरह सेवा कर रहे हैं.. "
अशफाकुल्ला खान को फैजाबाद जेल में हिरासत में भेज दिया गया था... उनके खिलाफ मामला दायर किया गया था. उनके भाई रियासत उल्ला खान ने कृपा शंकर हजेला, एक वरिष्ठ अधिवक्ता को उनके मामले की दलील में एक परामर्शदाता के रूप में नियुक्त किया.. श्री हजेला ने बहुत कोशिश की और अंत तक लड़े, लेकिन वह अशफाक के जीवन को नहीं बचा सके.
जेल में रहते हुए अशफाक रोज पांच बार 'नमाज' पढ़ते थे..
काकोरी साजिश के मामले में पंडित राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाकुल्ला खान, राजेंद्र लाहिड़ी और ठाकुर रोशन सिंह को फांसी की सजा दी गई... जबकि सोलह अन्य को चार साल से कठोर आजीवन कारावास की सजा तक दी गई...
एक प्रत्यक्षदर्शी के अनुसार बुधवार को, फांसी पर लटकाने से चार दिन पहले दो अंग्रेजी अधिकारियों ने अशफाकुल्ला खान की कोठरी में देखा.. वह अपनी नमाज के बीच में थे... उनमें से एक ने चुटकी लेते हुए कहा- "मैं देखना चाहता हूँ  कि इसमे कितनी आस्था बची रहती है जब हम इसे चूहे की तरह लटका देंगे." लेकिन अशफाक हमेशा की तरह अपनी प्रार्थना में मशगूल रहे... और वो दोनों बड़बड़ाते हुए चले गए...

सोमवार, 19 दिसम्बर 1927 अशफाकुल्ला खान फांसी के तख्ते पर आये.. जैसे ही उनकी बेड़ियाँ खोली गईं, उन्होने फांसी की रस्सी को इन शब्दों के साथ चूमा "किसी आदमी की हत्या से मेरे हाथ गंदे नहीं हैं.. मेरे खिलाफ तय किए आरोप नंगे झूठ हैं... अल्लाह मुझे न्याय दे देंगे.."
और फिर उन्होंने उर्दू में 'शहादा' पढ़ा...  
फांसी का फंदा उनके गले के पास आया
और आज़ादी के आंदोलन ने एक चमकता सितारा आकाश में खो दिया...
 
शहीद अश्फाक 'हसरत' की कुछ हसरतें लिख रहा हूँ-

कुछ आरजू नहीं है, है आरजू तो यह
रख दे कोई ज़रा सी खाके वतन कफ़न में..
ए पुख्तकार उल्फत होशियार, डिग ना जाना,
मराज आशकां है इस दार और रसन में...

न कोई इंग्लिश है न कोई जर्मन,
न  कोई रशियन है न कोई तुर्की..
मिटाने वाले हैं अपने हिंदी,
जो आज हमको मिटा रहे हैं...

बुजदिलो को ही सदा मौत से डरते देखा,
गो कि सौ बार उन्हें रोज़ ही मरते देखा..
मौत से वीर को हमने नहीं डरते देखा,
मौत को एक बार जब आना है तो डरना क्या है,
हम सदा खेल ही समझा किये, मरना क्या है..
वतन हमेशा रहे शादकाम और आज़ाद,
हमारा क्या है, अगर हम रहे, रहे न रहे...

मौत और ज़िन्दगी है दुनिया का सब तमाशा,
फरमान कृष्ण का था, अर्जुन को बीच रन में..

"जाऊँगा खाली हाथ मगर ये दर्द साथ ही जायेगा,
जाने किस दिन हिन्दोस्तान आज़ाद वतन कहलायेगा?
बिस्मिल हिन्दू हैं कहते हैं "फिर आऊँगा,फिर आऊँगा,
फिर आकर के ऐ भारत माँ तुझको आज़ाद कराऊँगा".

जी करता है मैं भी कह दूँ पर मजहब से बंध जाता हूँ,
मैं मुसलमान हूँ पुनर्जन्म की बात नहीं कर पाता हूँ..
हाँ खुदा अगर मिल गया कहीं अपनी झोली फैला दूँगा,
और जन्नत के बदले उससे इक पुनर्जन्म ही माँगूंगा.."


"किये थे काम हमने भी जो कुछ भी हमसे बन पाये,
ये बातें तब की हैं आज़ाद थे और था शबाब अपना..
मगर अब तो जो कुछ भी हैं उम्मीदें बस वो तुमसे हैं,
जबाँ तुम हो लबे-बाम आ चुका है आफताब अपना."
 
वन्दे मातरम्...
जय हिंद... जय भारत....
 

Sunday 2 October 2011

भारत के सबसे ईमानदार और कर्मठ प्रधानमंत्री श्री लाल बहादुर शास्त्री के जन्म दिवस की शुभकामनाएं...


भारत के सबसे ईमानदार और कर्मठ प्रधानमंत्री श्री लाल बहादुर शास्त्री के जन्म दिवस की शुभकामनाएं...

 
जिन्हें सबसे ज्यादा याद करना चाहिए उन्हें ये देश भूल जाता है
और 'थोंपे गए देश के कथित बाप' का गुणगान करता है...
शास्त्री जी की ईमानदारी की मिसाल भारतीय राजनीति में कहीं नही है.. जब उनका देहांत हुआ तो वो अपने सर पर कर्जा छोड़ कर गए थे, कार ऋण.. उस कार का कर्जा जो उन्होंने खरीदी थी...
वो अपनी सच्चाई, आदर्शों और सिद्धांतों के लिए जीए और देश के लिए मरे...
माँ भारती के इस सपूत को मैं शत शत नमन करता हूँ...

लालबहादुर शास्त्री स्वतंत्र भारत के दूसरे प्रधानमंत्री थे... शारीरिक कद में छोटे वह अपार साहस और इच्छाशक्ति के इंसान थे.. सरलता, सादगी और ईमानदारी के साथ अपने जीवन का नेतृत्व किया और सभी देशवासियों के लिए एक महान प्रेरणा स्रोत बने...

उत्तर प्रदेश में वाराणसी से सात मील की दूरी पर स्थित मुगलसराय में 2 अक्तूबर 1904 को लाल बहादुर का जन्म हुआ.. उनके पिता शारदा प्रसाद श्रीवास्तव एक अध्यापक थे जो बाद में इलाहबाद में राजस्व विभाग में क्लर्क बने.. लाल बहादुर जब तीन माह के थे तो गंगा के घाट पे अपनी माँ के हाथों से फिसलकर एक ग्वाले की टोकरी में जा गिरे.. ग्वाला जिसके कोई संतान नहीं थी उन्हें भगवान् का उपहार समझकर अपने घर ले गया.. लाल बहादुर के माता-पिता ने पुलिस में शिकायत दर्ज करवाई और पुलिस ने उन्हें ढूंढकर उनके माता-पिता को सौंप दिया... जब वह डेढ़ साल के थे तो उनके पिता का देहांत हो गया..

लाल बहादुर शास्त्री के बचपन की एक बहुत प्रसिद्ध घटना है-  लाल बहादुर अपने दोस्तों के साथ स्कूल से घर लौट रहे थे, रास्ते में एक बाग था.. लाल बहादुर पेड़  के नीचे खड़े थे और उनके दोस्त पेड़ पर आम तोड़ने के लिए चढ़ गए... इस बीच माली आया और लाल बहादुर को पकड़ लिया... उसने लाल बहादुर को डांटा और पिटाई करनी शुरू कर दी.. माली से डर कर लाल बहादुर ने कहा कि वह अनाथ है.. लालबहादुर पर दया करते हुए, माली ने कहा, "क्योंकि तुम एक अनाथ हो तो यह तुम्हारे लिए सबसे अधिक जरूरी है कि तुम अच्छा व्यवहार करना सीखो." इन शब्दों ने लाल बहादुर शास्त्री पर एक गहरी छाप छोड़ी और उन्होंने भविष्य में बेहतर व्यवहार करने की कसम खाई..
जब वह दस साल के थे तो छठी कक्षा उत्तीर्ण की

और फिर आगे की पढाई के लिए वाराणसी गए..
 

एक बार लाल बहादुर अपने दोस्तों के साथ गंगा नदी के पार मेला देखने गए.. शाम को वापस लौटते समय जब सभी दोस्त नदी किनारे पहुंचे तो उन्होंने नाव के किराये के लिए जेब में हाथ डाला.. जेब में एक पाई भी नहीं थी.. वह वहीँ रुक गए और अपने दोस्तों से कहा कि वह और थोड़ी देर मेला देखेंगे.. वह नहीं चाहते थे कि उन्हें अपने दोस्तों से नाव का किराया लेना पड़े, उनका स्वाभिमान उन्हें इसकी अनुमति नहीं दे रहा था..
उनके दोस्त नाव में बैठकर नदी पार चले गए..  जब उनकी नाव आँखों से ओझल हो गई तब लाल बहादुर ने अपने कपड़े उतारकर उन्हें सर पर लपेट लिया और नदी में उतर गए.. उस समय नदी उफान पर थी, बड़े-से-बड़ा तैराक भी आधे मील चौड़े पाट को पार करने की हिम्मत नहीं कर सकता था.. पास खड़े मल्लाहों ने भी उनको रोकने की कोशिश की मगर उन्होंने किसी की न सुनी और किसी भी खतरे की परवाह न करते हुए वह नदी में तैरने लगे... पानी का बहाव तेज़ था और नदी भी काफी गहरी थी.. रास्ते में एक नाव वाले ने उन्हें अपनी नाव में सवार होने के लिए कहा लेकिन वह  रुके नहीं, तैरते गए.. कुछ देर बाद वह सकुशल दूसरी ओर पहुँच गए...
 

हालांकि उनके माता पिता श्री शारदा प्रसाद और श्रीमती रामदुलारी देवी 'श्रीवास्तव' थे, मगर शास्त्री जी ने अपने प्रारंभिक वर्षों में अपनी जाति पहचान को छोड़ दिया.
1921 में, बाल गंगाधर तिलक और गांधी से प्रेरित होकर भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल होने के लिए उन्होंने कुछ समय के लिए पढाई छोड़ दी.. असहयोग आन्दोलन में लाल बहादुर गिरफ्तार हुए लेकिन कम उम्र होने के कारण छोड़ दिए गये...
बाद में वह काशी विद्यापीठ में शामिल हो गए और दर्शन शास्त्र में डिग्री प्राप्त करके 'शास्त्री' की उपाधि प्राप्त की...
काशी विद्या पीठ छोड़ने के बाद लाल बहादुर शास्त्री, लाला लाजपत राय द्वारा 1921 में स्थापित 'The Servants Of The People Society' में शामिल हो गए. सोसायटी का उद्देश्य था कि देश की सेवा में अपने जीवन को समर्पित करने के लिए तैयार युवकों को प्रशिक्षित करना..
1927 में लाल बहादुर शास्त्री ने ललिता देवी से शादी कर ली...
विवाह समारोह बहुत सरल था और शास्त्री जी ने दहेज में केवल एक चरखा और कुछ गज खादी ली थी...
1930 में सविनय अवज्ञा आंदोलन में लाल बहादुर शास्त्री शामिल हो गए और लोगों को सरकार को भू - राजस्व और करों का भुगतान नहीं करने के लिए प्रोत्साहित किया... उन्होंने गिरफ्तार किया गया और ढाई साल के लिए जेल में डाल दिया.. जेल में शास्त्री जी का पश्चिमी दार्शनिकों, क्रांतिकारियों और समाज सुधारकों से परिचय हुआ...
लाल बहादुर शास्त्री में आत्म सम्मान बहुत था.. जब वह जेल में थे तो उनकी बेटियों में से एक गंभीर रूप से बीमार हो गयी.. जेल अधिकारियों ने उनकी थोड़े समय की रिहाई के लिए शर्त रखी कि वह इस अवधि के दौरान आजादी के आंदोलन में हिस्सा नहीं लेंगे, ये लिखित रूप में सहमती होनी चाहिए.. लालबहादुर भी जेल से अपनी अस्थायी रिहाई के दौरान स्वतंत्रता आंदोलन में भाग नहीं लेना चाहते थे.. लेकिन उन्होंने कहा कि वो यह लिखित में नहीं देंगे... उन्होंने सोचा कि लिखित सहमती देना उनके आत्म सम्मान के खिलाफ था..

स्वतंत्रता की मांग के लिए कांग्रेस ने 1940 में "व्यक्तिगत सत्याग्रह" शुरू किया..  लाल बहादुर शास्त्री व्यक्तिगत सत्याग्रह के दौरान गिरफ्तार किया गए थे और एक वर्ष के बाद रिहा हुए... 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन में शास्त्री जी ने सक्रिय भाग लिया.. वह भूमिगत हो गये थे लेकिन बाद में गिरफ्तार किये गए और अन्य प्रमुख नेताओं के साथ 1945 में रिहा हुए थे... उन्होंने अपनी कड़ी मेहनत के द्वारा 1946 में प्रांतीय चुनावों के दौरान पंडित गोविंद वल्लभ पंत की विशेष प्रशंसा अर्जित की.. इस समय लाल बहादुर की प्रशासनिक क्षमता और संगठन कौशल सामने आया था... जब गोविंद वल्लभ पंत उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बन गए तो उन्होंने अपने संसदीय सचिव के रूप में लाल बहादुर शास्त्री को नियुक्त किया... 1947 में लाल बहादुर शास्त्री, पंत मंत्रिमंडल में पुलिस और परिवहन मंत्री बने..
लाल बहादुर शास्त्री कांग्रेस पार्टी के महासचिव थे, भारत गणराज्य बनने के बाद जब पहले आम चुनाव आयोजित किए गए थे.. कांग्रेस पार्टी एक विशाल बहुमत के साथ सत्ता में आई... 1952 में जवाहर लाल नेहरू केन्द्रीय मंत्रिमंडल में रेलवे और परिवहन मंत्री के रूप में लाल बहादुर शास्त्री को नियुक्त किया... तीसरी श्रेणी के डिब्बों में यात्रियों को अधिक सुविधाएं प्रदान करने में लाल बहादुर शास्त्री के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता.. उन्होंने रेलवे में पहली और तीसरे वर्ग के बीच विशाल असमानता को कम कर दिया...


एक रेल दुर्घटना की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए लाल बहादुर शास्त्री ने 1956 में रेल मंत्री से इस्तीफा दे दिया... जवाहर लाल नेहरू ने शास्त्री जी को मनाने की कोशिश की, लेकिन लाल बहादुर शास्त्री ने अपने स्टैंड से हिलने से इनकार कर दिया.. और अपने इस निर्णय से लाल बहादुर शास्त्री जी ने सार्वजनिक जीवन में नैतिकता के नए मानक स्थापित किये..
अगले आम चुनाव में जब कांग्रेस सत्ता में लौट आई  तो लाल बहादुर शास्त्री परिवहन और संचार मंत्री और बाद में वाणिज्य और उद्योग मंत्री बने... गोविंद वल्लभ पंत की मौत के बाद 1961 में वह गृह मंत्री  बन गए... 1962 के भारत-चीन युद्ध में शास्त्री जी ने देश की आंतरिक सुरक्षा को बनाए रखने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई...
1964 में जवाहरलाल नेहरू की मृत्यु के बाद लाल बहादुर शास्त्री को सर्वसम्मति से भारत के प्रधानमंत्री के रूप में चुना गया... यह एक कठिन समय था और देश को भारी चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा था... देश में भोजन की कमी थी और सुरक्षा के मोर्चे पर पाकिस्तान समस्याएं पैदा कर रहा था... 1965 में, पाकिस्तान ने भारत पर हमला किया... सौम्य व्यवहार लालबहादुर शास्त्री ने सैनिकों और किसानों के उत्साह के लिए "जय जवान, जय किसान" का नारा दिया... पाकिस्तान युद्ध में हार गया और शास्त्री जी के नेतृत्व की सारी दुनिया में प्रशंसा हुई...


जनवरी 1966 में रूस के ताशकंद में, भारत और पाकिस्तान के बीच शांति के लिए रूस की मध्यस्थता में लाल बहादुर शास्त्री और अयूब खान के बीच एक बैठक हुई.. रूसी मध्यस्थता से भारत और पाकिस्तान ने संयुक्त घोषणा पर हस्ताक्षर किए... संधि के तहत भारत युद्ध के दौरान जीते हुए सभी प्रदेशों को पाकिस्तान को लौटाने पर सहमत हुआ..

10 जनवरी, 1966 को संयुक्त घोषणापत्र पर हस्ताक्षर किए गए और उसी रात को लाल बहादुर शास्त्री की दिल का दौरा पड़ने से मृत्यु हो गई.??

1966 में शास्त्री जी को 'भारत रत्न' दिया गया...

लाल बहादुर शास्त्री की मौत का रहस्य-


आधिकारिक तौर पर शास्त्री जी की मृत्यु दिल का दौरा पड़ने से हुई जबकि उनकी पत्नी श्रीमती ललिता शास्त्री ने यह आरोप लगाया कि उनकी मौत जहर से हुई है... कई लोगों का मानना है कि उनका शरीर नीला पड़ गया था जो विषाक्तता का प्रमाण है... वास्तव में विषाक्तता के संदेह में एक रसियन खानसामा गिरफ्तार भी किया गया था लेकिन बाद में उसे छोड़ दिया गया...
विदेश मंत्रालय ने पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री की मौत को लेकर मास्को स्थित भारतीय दूतावास के साथ पिछले 47 साल के दौरान हुए पत्र व्यवहार का यह कहते हुए खुलासा करने से इनकार कर दिया है कि इससे देश की संप्रभुता और अखंडता तथा अंतरराष्ट्रीय संबंधों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा।
पहले विदेश मंत्रालय ने कहा था कि उसके पास ताशकंद में 1966 को हुई शास्त्री की मत्यु के संबंध में केवल एक मेडिकल रिपोर्ट को छोड़ कर कोई दस्तावेज नहीं है। यह मेडिकल रिपोर्ट उस डॉक्टर की है जिसने उनकी जांच की थी। इसके बाद विदेश मंत्रालय ने भारत और पूर्ववर्ती सोवियत संघ के बीच शास्त्री की मौत को लेकर हुए पत्र व्यवहार के बारे में चुप्पी साध ली थी।
2009 में एक पारदर्शिता संबंधी वेबसाइट डब्ल्यू डब्ल्यू डब्ल्यू डॉट एंड द सीक्रेसी डॉट कॉम के संचालक और CIA's Eye On South Asia के लेखक अनुज धर ने सूचना का अधिकार के अंतर्गत दिए गए अपने आवेदन में प्रधानमन्त्री कार्यालय से शास्त्री जी की मौत के बाद विदेश मंत्रालय और मास्को स्थित भारतीय दूतावास तथा दोनों देशों के विदेश मंत्रालयों के बीच हुए पत्र व्यवहार का ब्यौरा मांगा था.. उन्होंने यह भी कहा था कि अगर कोई पत्र व्यवहार नहीं हुआ है तो इसकी भी जानकारी दी जाए..
धर ने दिवंगत प्रधानमंत्री की जांच करने वाले डॉक्टर आर एन चुग की मेडिकल रिपोर्ट भी मांगी थी जो शास्त्री जी के पोते और भाजपा प्रवक्ता सिद्धार्थ नाथ सिंह के अनुसार, सार्वजनिक संपत्ति है...
मंत्रालय ने यह नहीं कहा कि कोई पत्र व्यवहार हुआ या नहीं.. उसने जवाब दिया कि जो सूचनाएं मांगी गई हैं उन्हें सूचना का अधिकार अधिनियम की धारा 8 (एक) (ए) के तहत जाहिर नहीं किया जा सकता... इस धारा के तहत ऐसी सूचना के खुलासे पर रोक है जिससे देश की संप्रभुता और अखंडता पर तथा विदेश से संबंधों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता हो..
मंत्रालय ने इस धारा के तहत छूट मांगने का कारण नहीं बताया जबकि केंद्रीय सूचना आयोग के आदेशों के अनुसार कारण बताना आवश्यक है.. वर्ष 1965 में हुए भारत पाक युद्ध के बाद शास्त्री जी जनवरी 1966 में पूर्ववर्ती सोवियत संघ में पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति अयूब खान के साथ एक बैठक के लिए ताशकंद गए थे। संयुक्त घोषणापत्र पर हस्ताक्षर करने के कुछ ही घंटे के बाद शास्त्री जी की रहस्यमय परिस्थितियों में मत्यु हो गई थी।
सिंह ने बताया कि डाक्टर की रिपोर्ट सार्वजनिक की जा चुकी है.. मेरे पास इसकी एक प्रति है.. इसमें डाक्टर ने अंत में लिखा है -हो सकता है -इससे ऐसा लगता है कि उनकी मौत का कारण जैसे कुछ शब्दों का इस्तेमाल किया गया है जिसका मतलब दिल का दौरा हो सकता है। प्रधानमंत्री की मौत को आप इस तरह नहीं बता सकते-इसके लिए आपको 100 फीसदी निश्चित होना होगा...
धर का कहना है कि विदेश में प्रधानमंत्री की मौत से खासी हलचल हुई होगी और मास्को स्थित भारतीय दूतावास में भी गतिविधियां कम नहीं हुई होंगी.. उन्होंने कहा इस घटना को लेकर कई फोन और टेलीग्राम आए होंगे लेकिन विदेश मंत्रालय इनमें से किसी का भी खुलासा करने को तैयार नहीं है।
धर के अनुसार, पहले उन्होंने कहा कि मास्को स्थित भारतीय दूतावास में डा चुग की रिपोर्ट के अलावा कोई दस्तावेज नहीं है..
अब वे कहते हैं कि वे फोन कॉल्स और टेलीग्राम का ब्यौरा जाहिर नहीं कर सकते... 
इसका मतलब यह है कि ये रिकॉर्डस हैं लेकिन पहले कह दिया गया कि रिकार्डस नहीं हैं..

माँ भारती के लिए जीने वाले हिंसा दुश्मनों से और अहिंसा दोस्तो से करने वाले,
देश के गद्दारो को साथ ले गए थे ताशकंद, पीठ पे छुरा दोस्तो से खाने वाले...
कद छोटा था पर सीने मे दिल बड़ा था, पाकिस्तानी कुत्तो के कान खड़े करने वाले,
न भूत मे, न वर्तमान मे और न ही भविष्य मे फिर ऐसे बहादुर शहीद आने वाले...

पूरे देश को दिलाकर व्रत सोमवार का, पाकिस्तान को नानी याद दिलाने वाले,
माँ भारती के लिए जीने वाले हिंसा दुश्मनों और अहिंसा दोस्तो से करने वाले..
आंखो मे देश की स्वदेशी का ख्वाब जगाकर, अमेरिका को मुह की खिलाने वाले,
सभी पढो माँ ललीता शास्त्री की "मेरा पति मेरा देवता" पुस्तक तो,
पता चल जाएगा कौन हत्यारे इस शहीद बहादुर को धोखे से मारने वाले...
भारत माता के 'गूदड़ी के लाल' लाल बहादुर शास्त्री को सादर प्रणाम..














वन्दे मातरम्...
जय हिंद... जय भारत...