गाँव की पहाड़ी पर और उसकी तलहटी में खंडहर पड़े मकानों में दोस्तों के साथ मधुमक्खी का छत्ता तोड़कर शहद खाना आजकल के बच्चों को बस सुनाने की बातें रह गयी हैं...
वह भी समय था जब शहद की खातिर छत्ते के ऊपर जमा मधुमक्खियों को उड़ाने के लिए धुंआ करना होता था जिसके लिए सूती कपड़ा नहीं मिलता था क्यूंकि टेरीकोट और पोलिस्टर का चलन हुआ करता था...
फिर किसी पुरानी बोरी का कपड़ा ढूंढकर लाया जाता था...
दोस्तों में झगड़ा होता था माचिस तू लाएगा, माचिस तू लाएगा... जब माचिस नहीं मिलती थी तो ऊपलों के हारे (पशुओं के चारे में मिलाने के लिए ग्वार बाजरा आदि गर्म करने का बड़े चूल्हे जैसा जिसमें ऊपलों का प्रयोग किया जाता है) में से आंच किसी पत्थर पर रखकर लाई जाती थी...
फिर बोरी के टुकड़े को लकड़ी के सिरे पर बांधकर अधजला करके धुएँदार बनाया जाता था और छत्ते के नीचे फौजियों वाला काला कम्बल ओढ़कर एक लड़का खड़ा हो जाता था, दस मिनट बाद धुंए से परेशान होकर सब मधुमक्खियां छत्ते को छोड़ देती थी...
पेड़ की उस डाली को तोड़कर अथवा शहद वाले हिस्से को एक बर्तन में डालकर ले आते थे और सब लंगोटिए यार मिलकर शहद खाते थे.
एक दिन शहद का आनंद ले रहे सब लड़कों को किसी ज्यादा समझदार साथी ने यह बता दिया कि ततैये के छत्ते में 'मिश्री' होती है...
किन्तु मिश्री प्राप्त करने के लिए ततैयों का बड़ा छत्ता होना चाहिए.!
गाँव के स्कूल के निकट तालाब के किनारे पुराने विशाल बरगद पर भ्रमर मक्खी (बड़ी मधुमक्खी) के विशालकाय छत्ते तो सबने देखे थे मगर ततैयों के बड़े छत्ते ढूँढने पर भी कहीं नहीं मिले...
कुछ दिन बाद हुआ ये कि हम तीन दोस्तों ने मिलकर सोचा क्यूँ ना छोटे छत्ते से ही काम चलाया जाए... किसी पुरानी हवेली में ततैये का छत्ता दिख गया और मिश्री के लालच में हमने धुंए का तीर ततैयों पर छोड़ दिया...
ततैये किसके बाप के धुंए से डरते हैं...
अपने छत्ते के पास आई धुंए वाली लकड़ी को उन्होंने खुद पर आक्रमण समझा और हम सबके मुहं और आँख अपने डंक से सुजा-सुजाकर वापस भेजा...
फिर कभी मिश्री खाने की इच्छा नहीं हुई...
इस घटना के बाद घर पर डांट पड़ी और पता चला कि ततैयों के छत्ते में मिश्री जैसा कुछ नहीं होता है.!
यादें याद आती हैं.!!
वह भी समय था जब शहद की खातिर छत्ते के ऊपर जमा मधुमक्खियों को उड़ाने के लिए धुंआ करना होता था जिसके लिए सूती कपड़ा नहीं मिलता था क्यूंकि टेरीकोट और पोलिस्टर का चलन हुआ करता था...
फिर किसी पुरानी बोरी का कपड़ा ढूंढकर लाया जाता था...
दोस्तों में झगड़ा होता था माचिस तू लाएगा, माचिस तू लाएगा... जब माचिस नहीं मिलती थी तो ऊपलों के हारे (पशुओं के चारे में मिलाने के लिए ग्वार बाजरा आदि गर्म करने का बड़े चूल्हे जैसा जिसमें ऊपलों का प्रयोग किया जाता है) में से आंच किसी पत्थर पर रखकर लाई जाती थी...
फिर बोरी के टुकड़े को लकड़ी के सिरे पर बांधकर अधजला करके धुएँदार बनाया जाता था और छत्ते के नीचे फौजियों वाला काला कम्बल ओढ़कर एक लड़का खड़ा हो जाता था, दस मिनट बाद धुंए से परेशान होकर सब मधुमक्खियां छत्ते को छोड़ देती थी...
पेड़ की उस डाली को तोड़कर अथवा शहद वाले हिस्से को एक बर्तन में डालकर ले आते थे और सब लंगोटिए यार मिलकर शहद खाते थे.
एक दिन शहद का आनंद ले रहे सब लड़कों को किसी ज्यादा समझदार साथी ने यह बता दिया कि ततैये के छत्ते में 'मिश्री' होती है...
किन्तु मिश्री प्राप्त करने के लिए ततैयों का बड़ा छत्ता होना चाहिए.!
गाँव के स्कूल के निकट तालाब के किनारे पुराने विशाल बरगद पर भ्रमर मक्खी (बड़ी मधुमक्खी) के विशालकाय छत्ते तो सबने देखे थे मगर ततैयों के बड़े छत्ते ढूँढने पर भी कहीं नहीं मिले...
कुछ दिन बाद हुआ ये कि हम तीन दोस्तों ने मिलकर सोचा क्यूँ ना छोटे छत्ते से ही काम चलाया जाए... किसी पुरानी हवेली में ततैये का छत्ता दिख गया और मिश्री के लालच में हमने धुंए का तीर ततैयों पर छोड़ दिया...
ततैये किसके बाप के धुंए से डरते हैं...
अपने छत्ते के पास आई धुंए वाली लकड़ी को उन्होंने खुद पर आक्रमण समझा और हम सबके मुहं और आँख अपने डंक से सुजा-सुजाकर वापस भेजा...
फिर कभी मिश्री खाने की इच्छा नहीं हुई...
इस घटना के बाद घर पर डांट पड़ी और पता चला कि ततैयों के छत्ते में मिश्री जैसा कुछ नहीं होता है.!
यादें याद आती हैं.!!